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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन खास निगाह थी कि वे भीतर न आने पायें। शल्क भी यथोचित लिया जाता था। नाना देशों के व्यापारी वहाँ व्यापार के लिए आते थे।
यह पैण्ठास्थान श्रीभूति नामक एक पुरोहित द्वारा संचालित था और उसको व्यक्तिगत सम्पत्ति प्रतीत होता है; किन्तु प्राचीन भारत में राज्य द्वारा इस प्रकार के पैण्ठास्थानों का संचालन होता था। स्वयं सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में लिखा है कि न्यायपूर्वक रक्षित पिण्ठा या पैण्ठास्थान राजाओं के लिए कामधेनु के समान हैं। नीतिवाक्यामृत के टीकाकार ने पिण्ठा का अर्थ 'शुल्कस्थान' किया है तथा शुक्राचार्य का एक पद्य उद्धृत किया है कि व्यापारियों से शुल्क अधिक नहीं लेना चाहिए और यदि पिण्ठा से किसी व्यापारी का कोई माल चोरी चला जाये तो उसे राजकीय कोष से भरना चाहिए ।
सोमदेव ने पिण्ठा को पण्यपुटभेदिनो कहा है। टोकाकार ने इसका अर्थ वणिकों की कुंकुम, हिंगु, वस्त्र आदि वस्तुओं को संग्रह करने का स्थान किया है।" यशस्तिलक के विवरण से ज्ञात होता है कि पैण्ठास्थान व्यापार के बहुत बड़े साधन थे और व्यापारिक समृद्धि में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान था।
सार्थवाह
यशस्तिलक में सार्थवाह के लिए सार्थ ( १६ ), सार्थपार्थिव ( २२५ उत्त० ) तथा सार्थानीक (२९३ उत्त०) शब्द आये हैं। समान या सहयुक्त अर्थ ( पूँजी ) वाले व्यापारी जो बाहरी मंडियों से व्यापार करने के लिए टांडा बांधकर चलते थे,
१६. स किल श्रीभूतिर्विश्वासरसनिघ्नतया परोपकारनिघ्नतया च विभक्तानेकापवरकर
चनाशालिनीभिर्महाभाण्डवाहिनीभिर्गोशालोपशल्याभिः कुल्याभिः समन्वितम्, अतिसुलभजलयसेन्धनप्रचारम् , भाण्डनारम्भोद्भटभीरपेटकपक्षरक्षासारम्, गोरुतप्रमाणंवप्रपाकारप्रतोलिपरिखासूत्रितत्राणं प्रपासवसभासनाथवीथिनिवेशनं पण्यपुटभेदनं विदूरित कितवविटविदूषकपीठमर्दावस्थानं पैण्ठास्थानं विनिर्माप्य नानादिग्देशोपसर्पणयुजां वणिजां प्रशान्तशुल्कभाटकभागहारव्यवहारमचीकरत् ।।
-पृ० ३४५ उत्त० २०. न्यायेनरक्षिता पण्यपुटभेदिनि पिण्ठा राशा कामधेनुः ।-नीति० १६।२१ २१. तथा च शुक्र : - ग्राह्यं नैवाधिक शुल्क चौरैयच्चाहृतं भवेत् ।
पिण्ठायां भुभुजा देयं वणिजां तत् स्वकोशतः ॥ वही, टीका २२. पण्यानि वणिग्जनानां कुंकुमहिंगुवस्त्रादीनि क्रयाणकानि तेषां पुटाः स्थानानि
भिद्यन्ते यस्यां सा पण्यपुटभेदिनी। -वहीं, टीका
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