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यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन
१९३ सार्थ कहलाते थे । उनका नेता ज्येष्ठ व्यापारी सार्थवाह कहलाता था। इसका निकटतम अंगरेजी पर्याय 'कारवान लोडर' है। हिन्दी का सार्थ शब्द संस्कृत के सार्थ से ही निकला है, किन्तु उसका वह प्राचीन अर्थ लुप्त हो गया है। प्राचीनकाल में यात्रा करना उतना निरापद नहीं था, जितना अब हो गया है। डाकुओं और जंगली जानवरों से घनघोर जंगल भरे पड़े थे, इसलिए अकेले-दुकेले यात्रा करना कठिन था। मनुष्य ने इस कठिनाई से पार पाने के लिए एक साथ यात्रा करने का निश्चय किया, और इस तरह किसी सुदूर भूत में सार्थ को नींव पड़ी। बाद में तो यह दूर के व्यापार का एक साधन बन गया।"
सार्थवाह का कर्तव्य होता था कि वह सार्थ की सुरक्षा करते हुए उसे गन्तव्य स्थान तक पहुँचाए। सार्थवाह कुशल व्यापारी होने के साथ-साथ अच्छा पथप्रदर्शक भी होता था । आज भी जहां वैज्ञानिक साधन नहीं पहुँच सके हैं, वहाँ सार्थवाह अपने कारवां वैसे ही चलाते हैं, जैसे हजार वर्ष पहले। कुछ ही दिनों पहले शिकारपुर के साथ ( सार्थके लिए सिन्धी शन्द ) चीनी तुर्किस्तान पहुँचने के लिए काराकोरम को पार करते थे और आज दिन भो तिब्बत का व्यापार सार्थों द्वारा होता है। - प्राचीन काल में कोई एक उत्साही व्यापारी सार्थ बनाकर ब्यापार के लिए उठता था । उसके सार्थ में और भी लोग सम्मिलित हो जाते थे। इसके निश्चित नियम थे । सार्थ का उठना व्यापारिक क्षेत्र को बड़ी घटना होती थी। धार्मिक यात्रा के लिए जिस प्रकार संघ निकलते थे और उनका नेता संघपति (संघवई, संबवी) होता था, वैसे ही व्यापारिक क्षेत्र में सार्थवाह को स्थिति थी। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है कि भारतीय व्यापारिक जगत में जो सोने की खेती हुई उसके फूले पुष्प चुनने वाले सार्थवाह थे। बुद्धि के धनी, सत्य में निष्ठावान, साहस के भण्डार, व्यापारिक सूझ-बूझ में पगे, उदार, दानी, धर्म और संस्कृति में रुचि रखनेवाले, नयी स्थिति का स्वागत करने वाले, देश-विदेश की जानकारी के कोष, यवन, शक, पल्लव, रोमक, ऋषिक, हूण आदि विदेशियों के साथ कन्धा रगड़ने वाले, उनको भाषा और रीति-नीति के पारखी भारतीय सार्थवाह महोदधि के तट पर स्थित ताम्रलिप्ति से सोरिया की अन्ताखी नगरी तक यवद्वीप-कटाहद्वीप ( जावा २३. समानधनचारित्रैर्वणिकपुत्रैः। - पृ० ३४५ उत्त० तुलना- सार्थान् सपनान् सरतो वा पान्थान् वहति सार्थवाहः।
- अमरकोष १९७८ सं० टी० २४. अग्रवाल - सार्थवाद, प्रस्तावना, पृ० २ २५. मोतीचन्द्र - सार्थवाह, पृ० २६
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