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________________ १८३ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन अश्व के गुण सोमदेव के अनुसार अश्व के निम्नलिखित गुणों की परीक्षा करनी चाहिए- (१) सत्त्व, (२) प्रकृति, (३) संस्थान, (४) वय, (५) आयु. (६) दशा, (७) छाया, (८) बल, (९) अनूक. (१०) स्वर, (११) कुल, (१२) जव (वेग); (१३) वर्ण, (१४) तनुरुह ( रोमराशि ), (१५) पृष्ठ, (१६) बालधि । पूछ ), (१७) केसर, (१८) ललाट, (१९) आसन, (२०) जघन, (२१) वक्ष, (२२) त्रिक, (२३) कन्धरा, (२४) शिर, (२५) कर्ण, (२६) हनु ( चिबुक ), (२७) जानु, (२८) जंघा, (२९) वदन, (३०) घोणा (नासिका), (३१) लोचन, (३२) सृक, (३३) अोष्ठ, (३४) जिह्वा, (३५) तालु, (३६) अन्तरास्य; (३७) दशन, (३८) स्कन्ध, (३९) कृपीट (पेट ), (४०) गात्र, (४१) शफ (टाप या खुर), (४२) पुण्ड्र, (४३) पावर्त । उत्तम अश्व में ये गुण विजयवैनतेय के उपर्युक्त विवरण के अनुसार प्रशस्त होने चाहिए। अश्वशास्त्र में भी इन्हीं गुणों की परीक्षा आवश्यक बतायी गयी है।६४ मागे सोमदेव ने यह भी लिखा है कि उपर्युक्त गुणों में से अन्यत्र किंचित् दोष भी रहे तो भी यदि बाल, वालधि, तनुरुह, पृष्ठ, वंश, केसर, शिर, श्रवण वक्त्र, नेत्र, हृदय, उदर, कण्ठ, कोश, खुर, जानु और जव (वेग) में दोष नहीं हैं तथा प्रावतं, छवि और छाया में शुभ है, तो ऐसा अश्व भी विजयकारक होता है । ६५ ___ अश्वों के अन्य गुणों के विषय में सोमदेव के विवरण की तुलनात्मक जानकारी इस प्रकार है जव ( वेग )-वाजिविनोदमकरंद कहता है कि श्रेष्ठ वेगवाला अश्व जब चौकड़ी भरता है तो पहाड़ों को गेंद-सा, नदियों को नालियों-सा और समुद्रों को ६४. श्रोष्टयो सृक्विर्णाश्चैव जिह्वायां दशनेषु च । वक्रतालु न नासायां गण्डयो नेत्रयोस्तथा ॥ ललाटे मस्तके चैव केशकणं पुटे तथा । ग्रीवायां केसरे चापि स्कन्धे वक्षासि बाहुके । जघायां जाननोश्चाध: कूपे पादे तथैव च । पार्श्वयोः पृष्ठभागे च कुक्षौ कट्यां च बालधौ।। मेहने मुश्कयोश्चापि तथैवोरुद्वयेऽपि च । पावर्ते च खुरे पुच्छे गतौ वर्णे स्वरे तथा ॥ महादोषं त्यजेत् प्राशश्छायायां गतिसत्वयोः । प्रवानस्यैव वाहानां लक्षणं तत्प्रतिष्ठितम्॥ -अश्वशास्त्र, पृ० १८, श्लोक. ३.७ ६५. बालबालधितनुरुहपृष्ठे वंशकेसर शिरः श्रवणेषु । वक्त्रनेत्रहृदयोदरदेशे कण्ठकोशखुरजानुजवेषु ॥ अन्यत्र स्वल्पदोषोऽपि यद्येतेषु न दोषवान् । शुभावर्तछ विच्छायो ह्यः स्याद्विजयोदयः॥ -यश. पृ० ३१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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