SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन कर बाँधना जिससे कलापिन् ( मयूर के पंखों की तरह सुन्दर दिखने लगे, कुन्तलकलाप कहलाता था। सोमदेव ने कुटज के कुड्मल और मल्लिका के पुष्प लगाकर बालों को कुन्तलकलाप के ढंग से सजाने का वर्णन किया है।१३ कुन्तलकलाप को गूथने के लिए शिरीष के पुष्यों की माला का उपयोग किया जाता था।'संभवतया पहले बालों को शिरीष की माला से सुविभक्त करके बाँध लिया जाता था, बाद में उसके बीच-बीच में कुटज कुड्मल और मल्लिका के पुष्षों को इस तरह से खोंसते थे, जिससे मयूरपिच्छ के ताराों की पूर्ण अनुकृति हो जाये। राजघाट से प्राप्त मिट्टी के खिलौनों में कुछ मस्तकों में इस प्रकार का केश-विन्यास देखा जाता है। इन खिलौनों में मांग के दोनों ओर कनपटी तक लहराती हुई शुद्ध पटिया मिलती हैं और वे ही छोर पर ऊपर को मुड़कर घूम जाती हैं । देखने में ये ऐसी मालूम होती हैं जैसे मोर की फहराती हुई पूछ। ५ कुन्तलकलाप की ठीक पहचान इसी तरह के केश-विन्यास से करना चाहिए। मानसार के अनुसार कुन्तल नामक केश-साधन का अंकन लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्ति के मस्तक पर किया जाता है । ६ केशपाश-यशस्तिलक में शिखण्डित केशपाश का उल्लेख हुआ है।'७ 'केशपाश' में पाश शब्द समूहवाची भी है और उत्कृष्टवाची भी। १८ केशपाश बालों के उस विन्यास को कहते थे, जिसमें पुष्प ओर पत्तों युक्त मंजरी से सजाकर बालों को इस तरह से बाँधा जाता था, जिससे वे मुकुट की तरह दिखने लगे। यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने इस अर्थ को समझाने का प्रयल किया है--'मरुवकोद्भेदैः सुगन्धपत्रमंजरीभिर्विदर्भिता गुम्फिता ये दमनकाण्डा:- सुगन्धपत्रस्तम्भाः तैः शिखण्डितो मुकुटितः केशपाशः । ९ सम्भवतया १३. कुटजकुड्मलोल्वणमल्लिकानुगतकुंतलकलापेन । -यश० सं० पू०, पृ० १०५ १४. शिरीषकुसुमदामसंदामितकुन्तलकलापामिः।- वही, पृ०५३२ १५ अग्रवाल-राजघाट के खिलौनों का एक अध्ययन, - कला और संस्कृति, पृ. २४८.४१ १६. उद्धत, जे० एन० वनी-दी डवलपमेंट ऑव हिन्दू आइकोनोग्राफी, पृ०३१४ १७. शिखण्डितकेशपाशेन । -यश० सं० पू०, पृ० १०५ १८. प्रशस्ताः केशाः केशपाशः।-अमरकोष, २, ६,९७, सं० टी. पाशः पक्षश्च हस्तश्च कलापार्थः ।-वही २, ६, ९८ १६ यश० सं० पू०, पृ० १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy