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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन १५३ लोग यह अनुमान सहज ही लगा लेते थे कि कोई नायिका केश - संस्कार कर रही है । ५ अलकजाल - यशस्तिलक में बालों के लिए अलक शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है । अलक चूर्ण विशेष के द्वारा घुंघराले बनाए गये बालों को कहते थे । ६ सोमदेव ने इस चूर्ण को पिष्टातक नाम दिया है। पिष्टात या पिष्ठातक कुंकुम आदि सुगन्धित द्रव्यों को पीसकर बनाया जाता था । ७ पिष्ठातक के प्रयोग द्वारा घुँराले बनाकर सँवारे गये बालों को अलकजाल कहते थे । सोमदेव ने लिखा है कि सैनिक प्रयाग से उठी हुई घूलि ने ककुभांगनानों के अलकप्रसाधन के लिए निष्ठातक चूर्ण का काम किया | अकों में चूर्ण के प्रयोग की सूचना कालिदास ने भी दो है। इस तरह घुँघराले सँवार कर उनमें पत्र-पुष्प लगा लिए जाते थे । ० बनाए गये बालों को अलकजाल को छल्लेदार या घूँघरदार वेश रचना कहा जा सकता है । अंगरेजी लेखों में जिन्हें Spiral या Frizzled locks कहा जाता है वह उसके अत्यन्त निकट है । अलकजाल के अनेक प्रकार राजघाट ( वाराणसी ) से प्राप्त खिलौनों में देखे जाते हैं । जैसे -- ( १ ) शुद्ध घूँघर, (२) छतरीदार घूँघर, (३) चटुलेदार घूँघर, (४) पटियादार घूँघर । डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने इनका विशेष विवेचन किया है । ११ कुन्तलकलाप - यशस्तिलक में कुन्तल शब्द भी बालों के लिए कई बार आया है । 'कुन्तलकलाप' इस सम्मिलित पद का प्रयोग केवल तीन बार हुआ है । कलाप मयूर को भी कहते हैं तथा समूह अर्थ में भी आता है । १२ कुन्तलकलाप में स्थित 'कलाप' शब्द में इन्हीं को ध्वनि है। बालों को इस तरह सँवार ५. जालोद्गीर्णे रुप चितवपुः केशसंस्कार धूपैः । - वही, ११३२ ६. अलकाश्चूर्णकुन्तल: । - श्रमरकोष २, ६, ६६ ७. पिष्टेन कुंकुम चूर्णादिनातति पिष्टातः । - अमरकोष, २, ६, १३६, सं० टी० ८. ककुं भागनालक प्रसाधन पिष्टातक चूर्णः । - यश० पृ० ३३८ ६. अलकेषु चमूरेणुश्चूर्ण प्रतिनिधीकृतः । - रघुवंश, ४ ५४ १०. विकच विच किलालीकीर्ण लोलालकानाम् । - यश०, पृ० ५३४ ११. अग्रवाल - राजघाट के खिलौनों का एक अध्ययन, कला और संस्कृति, पृ० २४६ १२, कलापः संहते बर्हे तूणीरे भूषणे हरे । विश्वलोचन कलापो बर्हितूणयोः । संहतौ भूषणे कांच्या म् । - अनेकार्थसंग्रह ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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