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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन ૨૪ 9 इस विशेषण को समझने के लिए किंचित् पृष्ठभूमि की प्रावश्यकता है । वास्तव में यह विशेषरण अपने साथ एक परम्परा लिए है । गुप्तयुग से ही विशिष्ठ आभूषणों के बारे में तरह-तरह की किंवदन्तियाँ प्रचलित हो गयी थीं। बारण ने एकावली के विषय में एक मनोरंजक प्रसंग दिया है- faraरमित्र ने हर्षको एकावली के सम्बन्ध में एक रहस्यपूर्ण बात बतायी" तारापति चन्द्रमा ने योवन के उन्माद में वृहस्पति की स्त्री तारा का अपहरण किया और स्वर्ग से भाग कर उसके साथ इधर-उधर घूमता रहा । देवताओं के समझाने-बुझाने से उसने तारा को तो वृहस्पति को वापिस कर दिया, किन्तु उसके विरह में जलता रहा। एक बार उदयाचल से उठते हुए उसने समुद्र के विमल जल में पड़ी अपनी परछाई देखी, और काम भाव से तारा के मुख का स्मरण करके विलाप करने लगा । समुद्र में इसके जो झाँसू गिरे उन्हें सीपियाँ पी गयीं और उनके भीतर सुन्दर मोती बन गये । उन मोतियों को पाताल में वासुकि नाग ने किसी तरह प्राप्त किया और उन मुक्ताफलों को गूंथकर एकावली बनायी, जिसका नाम मंदाकिनी रखा । सब औषधियों के अधिपति सोम के प्रभाव से अत्यन्त विषघ्नी है और हिमरूपी अमृत से उत्पन्न होने के कारण सन्तापहारिणी है । इसलिए विष - ज्वालाओं को शान्त करने के लिए वासुकि सदा उसे पहने रहता था। कुछ समय बाद ऐसा हुआ कि नाग लोग भिक्षु नागार्जुन को पाताल में ले गये और वहाँ नागार्जुन ने वासुकि से उस माला को माँग कर प्राप्त कर लिया । रसातल से बाहर आकर नागार्जुन ने मन्दाकिनी नामक वह एकावली माला अपने मित्र त्रिसमुद्राधिपति सातवाहन नाम के राजा को प्रदान की और वही माला शिष्य - परम्परा द्वारा हमारे हाथ में आयी । ३८ ( हर्ष ० २५१ ) सोमदेव के समय तक सम्भवतया ऐसी मान्यताएँ चलती रहीं, जिसे सोमदेव ने संकेत मात्र से कह दिया । एकावली मोतियों की इकहरी माला को कहते थे । ३ गुप्तकालीन शिल्प की मूर्तियों और चित्रों में इन्द्रनील की मध्यगुरिया सहित मोतियों की एकावली बराबर पायी जाती है । ४° ३८. अग्रवाल - हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १९७ ३६. एकावल्येकयष्टिका । - अमरकोष, २, ६, १०६ ४०. अग्रवाल - हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १६६ । फलक २४, चित्र ६२ १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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