SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन . चीवर-एक उपमा अलंकार में चीवर का उल्लेख है। चीवर की ललाई से अन्तःकरण के अनुराग की उपमा दी गयी है।' १६ - बौद्ध भिक्षुत्रों के पहिनने-ओढ़ने के काषाय वर्ण के चादर चीवर कहलाते थे। महावग्ग में चीवरक्खन्धकं नाम का एक स्वतन्त्र प्रकरण है, जिसमें भिक्षुत्रों के लिए तरह-तरह की कथाओं के माध्यम से चीवरों के विषय में ज्ञातव्य सामग्री. प्रस्तुत की गयी है।।१७ चीवर कपड़ों के अनेक टुकड़ों को एक साथ सिलकर बनाए जाते हैं। ..अवान-आश्रमवासी तपस्वियों के वस्त्रों के लिए यशस्तिलक में अवान शब्द आया है ।।१८ परिधान-अधोवस्त्रों में सोमदेव ने परिधान और उपसंव्यान शब्दों का उल्लेख किया है। एक उक्ति में सोमदेव कहते हैं कि जो राजा अपने देश की रक्षा न करके दूसरे देशों को जीतने की इच्छा करता है वह उस पुरुष के समान है जो धोती खोल कर सिर पर साफा बाँधता है। १९ अमरकोषकार ने नीचे पहननेवाले वस्त्रों में परिधान की गणना की है । १२० बुन्देलखण्ड में अभी भी धोती को पर्दनी या परदनिया कहा जाता है, जो इसी परिधान शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। उपसंव्यान-उपसंव्यान का दो बार उल्लेख है। एक कथा के प्रसंग में एक अध्यापक बकरा खरीदता है और अपने शिष्य से कहता है, कि इसे उपसंव्यान से अच्छी तरह बाँधकर लाना ।१२। यहाँ पर संस्कृत टीकाकार ने उपसंव्यान का अर्थ उत्तरीय वस्त्र किया है।१२२ राजमाता ने सभामंडप में जाते समय उपसंव्यान धारण किया था (अरुणमणिमौलिमयूखोन्मुखराजिरंजितोपसंव्यानाम्, उत्त० ८२) । यहाँ संस्कृत टीकाकार ने अधोवस्त्र ही अर्थ किया है। ११६. चीवरोपरागनिरतान्तःकरणेन ।-- यश. उत्त०, पृ. ८ ११७. महावग्ग, चौवरक्खन्धकं ११८. अपरगिरिशिखराश्रयाश्रमवासतापसावानवितानितधातुजलपाटलपटप्रतान स्पृशि। -यश° उत्त०, पृ० ५। ११६. अकृत्वा निजदेशस्य रक्षां यो विजिगीषते । सः नृपः परिधानेन वृत्तमौलिः पुमानिव ||-यश० सं० १०, पृ०७४ १२०. अन्तरीयोपरांव्यानपरिधानान्यधोंशुके ।-अमरकोष, २. ६, ११७ १२.. तदतियत्नमुपसव्यानेन वद्धवानीयताम् ।-यश० उत्त० पृ० १३२ १२२. उपसंव्यानेन उत्तरीयवस्त्रेणी-वहीं, सं० टी० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy