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यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन
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था । ९९ कादम्बरी में भी बाणभट्ट ने वारबारण का उल्लेख किया है । चन्द्रापीड जब शिकार खेलने गया तब उसने वारबारण पहन रखा था । मृग-रक्त के सैकड़ों छीटें पड़ने से उसकी शोभा द्विगुणित हो गयी थी । ६ मृगया 'से लौटकर चन्द्रापीड परिजनों के द्वारा लाये गये आसन पर बैठा और वारबारण उतार दिया । १९७
उपर्युक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि वारबारण केवल जिरह - बख्तर के लिए नहीं, बल्कि साधारण वस्त्र के लिए भी प्राता था । कौटिल्य के उल्लेखानुसार तो वारबारण ऊनी भी बनते थे । बाणभट्ट को वारवारण की जानकारी हर्ष के दरबार में हुई होगी । भारतवर्ष में यह वस्त्र कब से आया, यह कहना मुश्किल है, किन्तु इसके अत्यल्प उल्लेखों से लगता है कि वारबारण का प्रयोग प्रायः राजघरानों तक ही सीमित रहा । सम्भव है अधिक मँहगा होने से इसका प्रचार जनसाधारण में न हो पाया हो । सोमदेव के उल्लेख से इतना निश्चय अवश्य हो जाता है कि दशवीं शताब्दी तक भारतीय राज्यपरिवारों में वारबारण का व्यवहार होता आया था तथा कंचुक की तरह वारबारण भी स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे ।
वर्णन के प्रसंग में
चोलक - चोलक का उल्लेख सोमदेव ने सेनाओं के किया है। गौड़ सैनिक पैरों तक लम्बा (प्रपदीन) चोलक पहने थे । ९" संस्कृत टीकाकार ने चोलक का अर्थ कूर्पासक किया है, ९९ किन्तु देखना यह है कि टीकाकार इन वस्त्र के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किए बिना ही कुछ भी अर्थ कर देता है । ऊपर कंचुक के लिए कूर्पासक कहा है यहाँ चोलक के लिए । वास्तव में ये सभी वस्त्र अलग-अलग तरह के थे ।
चोलक एक प्रकार का वह कोट था, जो कंचुक या अन्य सब प्रकार के वस्त्रों के ऊपर पहना जाता था । यह एक संभ्रान्त और आदरसूचक वस्त्र समझा जाता था । उत्तर-पश्चिम भारत में सर्वत्र नौशे के लिए इस वेश का रिवाज लोक में अभी भी है, जिसे चोला कहते हैं । चोला ढीला-ढाला गुल्फों तक लम्बा खुले गले का पहनावा है, जो सब वस्त्रां के ऊपर पहना जाता है | ००
६५. धवलवार बाणधारिणम् । वही, पृ० ३४
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६६. मृगरुधिरलवशतशबलेन वारवाणेन । -- कादम्बरी, पृ० २१५
९७. परिजनोपनीत उपविश्यासने वारबाणमवतार्य । - वही, पृ० २१६ २८. श्रप्रपदीन चोलक स्खलितगतिवैलक्ष्य ।-यश० सं०
पू०, ४६६
६६. चोलकः कूर्पासकः । - वही सं० टी०
१००. अग्रवाल - हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १५२
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