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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
में उसकी विभिन्न रंगों में रँगाई की जाती थी । कार्दमिकांशुक का अर्थ यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने कस्तूरी से रँगा हुआ वस्त्र किया है । ६९ कात्यायन के अनुसार भी शकल और कर्दम से वस्त्र रँगने का रिवाज था, जिन्हें शाकलिक या कार्दमिक कहते थे (४।२।२ वा० ) । ७०
बाणभट्ट ने अंशुक का कई बार उल्लेख किया है । वे इसे अत्यन्त पतला और स्वच्छ वस्त्र मानते थे । ७१ एक स्थान पर मृणाल के रेशों से अंशुक की सूक्ष्मता का दिग्दर्शन कराया है । ७२ बारग ने फूल-पत्तियों और पक्षियों की आकृतियों से सुशोभित अंशुक का भी उल्लेख किया है।७३
प्राकृत ग्रन्थों में 'अंसुय' शब्द आता है । आचारांग में अंशुक और चीनांशुक दोनों का पृथक्-पृथक् निर्देश है ।७४ बृहत् कल्पसूत्र भाष्य में भी दोनों को अलग-अलग गिनाया है । ७५
प्राचीन भारतवर्ष में दुकूल के बाद सबसे अधिक व्यवहार अंशुक का ही देखा जाता है । सोमदेव के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि दशवीं शताब्दी में अंशुक का पर्याप्त प्रचार था ।
कौशेय - कौशेय का उल्लेख सोमदेव ने विभिन्न देशों के राजाओं द्वारा भेजे गये उपहारों में किया है । कोशल नरेश ने सम्राट यशोधर को कौशेय वस्त्र उपहार में भेजे । ७६
कौशेय शहतूत की पत्ती खाकर कोश बनानेवाले कीड़ों के रेशम से बनाए जानेवाले वस्त्र का नाम था । ७७ देशो भाषा में अब इसका 'कोशा' नाम शेष रह गया है । कोशा तैयार करने की वही पुरानी प्रक्रिया अब भी अपनाई जाती है । कोशा मँहगा, खूबसूरत तथा चिकना वस्त्र होता है । मँहगा होने के कारण जनसाधारण इसका सदा उपयोग नहीं कर पाते, फिर भी विशेष अवसरों के लिए
६६. कार्दभिकं कर्दमेण रक्तम् । - यश० उत्त० पृ० २२०, सं० टी० ७०. उद्घत, अग्रवाल — पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० २२५
७१. सूक्ष्मविमलेन प्रज्ञावितानेनेवांशुकेनाच्छादितशरीरा । - हर्षचरित, पृ० ३ ७२. विषतन्तुमये नांशुकेन । - वही, पृ० १०
७३. बहुविध कुसुमशकुनिशतशोभितादतिस्वच्छा दंशुकात् । - वही, पृ० ११४ ७४. अंसुयाणि वा चीणंसुयाणि वा । - आचारांग, २, वस्त्र०, १४, ६ ७५. अंग चीगंगे च विगलेंदी | - बृहत् कल्पसूत्र ०, ४, ३६६१ ७६. कौशेयैः कौशलेन्द्रः । - यश० सं० पू० पृ० ४७० ७७. मोतीचन्द्र - भारतीय वेशभूषा, पृ० ६५
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