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________________ यशस्तिलककालोन सामाजिक जीवन १२३ चौदहवीं शती तक बंगाल में नेत अथवा नेत्र एक मजबूत रेशमी कपड़े को " कहते थे । इसकी पाचूडी पहनी और बिछाई जाती थी । २ पदमावत के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि सोलहवीं शती तक नेत्र का प्रचार था । जायसी ने तीन बार नेत्र अथवा नेत का उल्लेख किया है । रतनसेन - के शयनागार में अगरचन्दन पोतकर नेत के परदे लगाये गये थे । ३ पदमावती जब चलती थी तो नेत के पाँवड़े बिछाए जाते थे । १४ एक अन्य प्रसंग में भी मार्ग में नेत बिछाने का उल्लेख है (नेत बिछावा बाट ६४१।८) । भोजपुरी लोकगीतों में नेत का उल्लेख प्रायः आता है । १५ बंगला में भी नेत के उल्लेख मिलते हैं । ' ६ चीन - चीन का अर्थ श्रुतसागर ने चीन देश में उत्पन्न होनेवाले वस्त्र से किया है । १७ सोमदेव के बहुत समय पहले से भारतीय जन चीन देश से आनेवाले वस्त्रों से परिचित हो चुके थे। डॉ० मोतीचन्द्र ने भारतीय वेशभूषा में चीन देश से आनेवाले वस्त्रों के विषय में पर्याप्त जानकारी दी है । पथ पर बने हुए एक चीनी रक्षागृह से एक रेशमी थान पहली शताब्दी की ब्राह्मी में एक पुरजा लगा हुआ था हैं कि भारतीय व्यापारी चीनी - रेशमी कपड़े की खोज में मध्य एशिया के प्राचीन मिला, जिस पर ई० पू० । यह इस बात का द्योतक चीन की सीमा तक इतने प्राचीन काल में पहुँच गये थे । १८ चीन देश से आनेवाले वस्त्रों में सबसे अधिक उल्लेख चीनांशुक के मिलते १२. तमोनाशचन्द्रदास - आसपेक्ट्स आफ बंगाली सासायटी फ्राम बंगाली लिटरेचर, पृ० १८०-१८१ १३. श्रवरि जूड़ि तहाँ सोवनारा | अगर पोति सुख नेत श्रहारा ॥ अग्रवाल - पदमावत, ३३६५ १४. पालक पांव कि आछहि पाटा । नेत बिछाइ जौं चल बाटा ॥ - वही, ४८२७ १५. राजा दशरथ द्वारे चित्र रेहल, ऊपर नेत फहरासु हे । - जनपद, वर्ष १, अंक ३, अप्रैल, १६३६, ५०५२ १६. नेतेरांचले चर्ममंडित करिया घर घर वासिनी पोशे, अर्थात् नेत के आँचल में चमड़े से ढँकी हुई स्त्रीरूपी व्याघ्री घर-घर में पासी जा रही है । धर्मपाल में गोरखनाथ का गीत, उद्धत, अग्रवाल -- पदमावत, पृ० ३३६ , १७. चीनानां चीन देशोत्पन्नवस्त्राणाम् । - यश० सं० पू० पृ० ३३६, सं०टी० १८. सर आरल स्टाइन - एशिया मेजर, हथे एनिवर्सरी वालुम १६२३, पृ० ३६७ - ३७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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