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________________ ११४ स्नान —— ऋतु के अनुसार ठंडे या गरम जल से प्रसन्न करता है तथा शरीर की बढ़ाता है, हृदय को दूर करता है । ३२ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन किया गया स्नान श्रायु को खुजली और परिश्रम को परिश्रम करने तथा धूप में से आने के तत्काल बाद तथा इन्द्रिय और चित्त में जिस समय व्याकुलता हो उस समय स्नान तथा खान-पान नहीं करना चाहिए ३३ धूप में से आकर तत्काल पानी पीने से दृष्टि मन्द हो जाती है, परिश्रम करने के तुरन्त बाद भोजन करने से वमन होने लगता है और ज्वर हो जाता है, शौच की बाधा होने पर भी भोजन करने से गुल्म हो जाता है । ३४ स्नानोपरान्त विधिपूर्वक देवपूजा आदि कार्य करके स्वच्छ वेष धारण करे तथा प्रसन्न मन से अतिथि सत्कार करके आप्त ( विश्वस्त) व्यक्तियों के साथ उतना भोजन करे, जिससे सायंकाल फिर से भूख लग जाए । ३५ स्वच्छ वेष धारण करने तथा एकान्त में और आप्तजनों के साथ में भोजन करने के कई कारण हैं, जिनका आयुर्वेद में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । ३६ ३२. आयुष्यं हृदयप्रसादि वपुषः कण्डूक्लमच्छेदि च, स्नानं देव यथातुसे वितमिदं शीतैर शीतैर्जलैः ॥ - १० ५०८ तुलना - दीपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमोजोबलप्रदम् । कल्डूक्लमश्रमस्वेदतन्द्रातृड्दा हपाप्मनुत् ॥ ३३. श्रमधर्मार्त देहानामा कुलेन्द्रियचेतसाम् । तव देव द्विषां सन्तु स्नानपानादनक्रियाः ॥ पृ० ३०८ ३४. दृग्मान्यभागात्तपितोऽम्बुसेवी श्रान्तः कृताशो वमनज्वराहः । भगन्दरी स्यन्दविबन्ध काले गुल्मी जिहत्सुविहिताशनश्च ॥ १०५०९ ३५. स्नानं विधाय विधिवत्कृत देवकार्य : संतर्पितातिथिजनः सुमनाः सुवेषः । आप्तैवृतौ रहसि भोजनकृत्तथा स्यात् सायं यथा भवति भुक्तिकरोऽभिलाषः ॥ -१०५०९ ३६. यशस्यं काम्यमायुष्यं श्रीमदानन्दवर्धनम् । त्वच्यं वशीकरं रुच्यं नवनिर्मलमम्बरम् || कदापि न जनैः सद्भिर्घार्य मलिनमम्बरम् तत्तु कण्डूकमिकरं ग्लान्यलक्ष्मीकरं परम् ॥ Jain Education International — भाव प्र० भा० १, पृ० ११८, लो० ६२, ६३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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