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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन १११ आहार, निद्रा और मलोत्सर्ग के समय शंकित तथा बाधायुक्त मन होने पर अनेक प्रकार के बड़े-बड़े रोग हो जाते हैं । १३ भोजन के समय वर्जनीय व्यक्ति भोजन करते समय उच्छिष्ट भोजी, दुष्ट प्रकृति, रोगी, भूखा तथा निन्दनीय व्यक्ति पास में नहीं होना चाहिए । १ ४ भोज्य पदार्थ -- विवरण, अपक्व, सड़ा-गला, विगन्ध (जिसकी गन्ध बदल गयी हो ), विरस, प्रतिजीर्ण, अहितकर तथा अशुद्ध अन्न नहीं खाना चाहिए । १५ भोज्य पदार्थ – हितकारी, परिमित, पक्व, नेत्र - नासा तथा रसना इन्द्रिय को प्रिय लगने वाला सुपरीक्षित भोजन न जल्दी-जल्दी और न धीरे-धीरे अर्थात् मध्यमगति से करना चाहिए । १६ विषयुक्त भोजन - विषयुक्त भोजन को देखकर कौआ और कोयल विकृत शब्द करने लगते हैं, नकुल और मयूर आनन्दित होते हैं, क्रौंच पक्षी अलसाने लगता है, ताम्रचूड (मुर्गा) रोने लगता है, तोता वमन करने लगता है, बन्दर मल कर देता है, चकोर के नेत्र लाल हो जाते हैं, हंस की चाल डगमगाने लगती है तथा भोजन पर मक्खियाँ भी नहीं बैठतीं । जिस तरह नमक डालने से अग्नि चटचटाती है, उसी तरह विषयुक्त अन्न के सम्पर्क से भी चटचटाने लगती है । १७ भोजन के विषय में अन्य नियम - पूनः गर्म किया हुआ भोजन, अंकुर निकले हुए अन्न तथा दस दिन तक काँसे के बर्तन में रखा गया घी नहीं खाना चाहिए । दही और छाछ के साथ केला, दूध के साथ नमक, कांजी के साथ कचौड़ी ( शष्कुलि), गुड़, पीपल, मधु तथा मिर्च के साथ काकमाची (मकोय) तथा मूली के साथ उड़द की दाल, दही की तरह गाढ़ा सत्तू तथा रात्रि में कोई भी तिल विकार (तिल के बने पदार्थ) नहीं खाना चाहिए । १८ घृत तथा जल को छोड़कर रात्रि में बने हुए सभी पदार्थ, केश या कीटयुक्त पदार्थ तथा फिर से गरम किया गया भोजन नहीं करना चाहिए । १३. पृ० वही, लोक ३३४ १४. पृ० वही, श्लोक ३३५ १५. पृ० वही, लोक ३३६ ६. पृ० ५१०, लोक ३३७ १७. पृ० वही, श्लोक ३३८-४० १८. पृ० वही, लोक ३३८-४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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