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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन १०७ मांसाहार समर्थक कहते हैं कि मुद्ग (मूंग) और माष (उड़द ) आदि भी तो मय (ऊँट) और मेष (भेड़ ) आदि के समान ही जीवस्थान होने से मांस ही हैं । उनमें अन्तर क्या है । ६८ सोमदेव ने इस कथन का व्यावहारिक पृष्ठभूमि पर दृढ़तापूर्वक खण्डन किया है । उन्होंने लिखा है कि यह जरूरी नहीं कि जो जीव शरीर हो वह मांस ही हो, इसके विपरीत मांस तो जीव-शरीर है ही, उसी प्रकार जिस प्रकार नीम का वृक्ष वृक्ष है ही, किन्तु जो वृक्ष है वह नीम ही हो, यह जरूरी नहीं । गाय का दूध शुद्ध है, किन्तु गोमांस नहीं । सर्प का रत्न विष को नाश करता है, किन्तु विष विपदकारक है । किसी-किसी वृक्ष के पत्र तो आयुष्य के कारण होते हैं, किन्तु जड़ें मृत्युकारी । ६९ ६८. जीवयोग्या विशेषेण मयमेषादिकायवत् । मुद्गमाषादिकायोsपि मांसमित्यपरे जगुः ॥ पृ० ३३० उत्त ६६. मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । निम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ॥ पृ० ३३१ उत्त० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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