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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
पायस तथा वार्षीण मांस से क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, पाठ, नव, दश, ग्यारह पूरा वर्ष तथा बारह वर्ष तक के लिए तृप्त होते हैं । ६३ ।
छोटी जातियों में भी मांस का व्यवहार रहा होगा, किन्तु उसके उल्लेख नाम मात्र को ही है। चण्डकर्मा मुर्गी पालता था। एक प्रसंग में वह मुनिराज के समक्ष कहता है कि हिंसा हमारा कुल धर्म है । ६४ सम्भवतः धीवर (२१६, ३३५, उत्त०) चर्मकार (१२५), चाण्डाल (२५४), अन्त्यज (४५७), भाल (४५७), शबर (२३१
उत्त०), किरात (२२० उत्त०), वनेचर (५६) तथा निषादों (६०२, उत्त०) में भी ". मांस का व्यवहार होता था ।
- मांसाहार निषेध-सोमदेव ने मांसाहार का घोर विरोध किया है। उनका कहना है कि लोग इन्द्रिय लोलुपता तथा अपने स्वार्थ के कारण मांस खाते हैं, उसके साथ धर्म और आगम को व्यर्थ ही जोड़ रखा है ।६५ सोमदेव ने उद्धरण देकर इस बात को सिद्ध किया है कि तिल या सरसों के बराबर भी मांस खानेवाला यावच्चन्द्रदिवाकर नरक की यातनाएँ सहता है।६६ मांस खाने के संकल्प मात्र से होने वाले दुष्परिणाम का वर्णन एक लम्बी कथा में किया गया है । ६७ सम्पूर्ण यशस्तिलक भी एक प्रकार से इसी परिणाम की कहानी है।
६३ वौमासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान्हारिणेन च ।
औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनैव पञ्च वै ।। षटमासांश्छागमासेन पार्षतेन हि सप्त वै । अष्टावणस्थ मासेन रौरवेण नवैव तु ॥ दशमासास्तु तप्यन्ति वाराहम हिषामिषैः । शशकूर्मस्य मासेन मासानेकादशैव तु ॥ संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन वा । वाणस्य मासेन तप्तादशवार्षिकी ।।-पृ० १२७ १२८ उत्त० ६४. हिंसास्माकं कुलधर्मः ।-पृ. २५८ उत्त. ६५. मांसं जिघत्सेद्यदि कोऽपि लोकः किमागमस्तत्र निदर्शनीयः । लोलेन्द्रियैलोकमनोनुकलैः स्वाजीवनायागम एष सृष्टः ।।
-पृ. १३. उत्त. ६६. तिलसर्पषमात्र यो मांसमश्नाति मानवः । __ . स श्वभ्रान्न निवर्तत् यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
-पृ० १३. उत्त. ६७. अध्याय ७, कल्प २४
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