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यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन
९५ वसन्त, शरद् तथा ग्रीष्म को छोड़कर अन्य ऋतुमों में घृत (सर्पिः), सिता (शक्कर), आमला तथा मूग के पानी के साथ करना चाहिए। ७
तक : दधि को मथकर तुरन्त जिसका नवनीत निकाल लिया गया है, ऐसा तक्र समगुण वाला होता है, बहुत देर तक मथा मया किसी भी दोष को उत्पन्न नहीं करता।८
दुग्ध : दुग्ध साक्षात् जीवन ही है। जन्म के साथ ही दूग्ध-पान प्रारम्भ हो जाता है । गाय का धारोष्ण दुग्ध आयुष्य करनेवाला होता है। दूध प्रातः, सायंकाल, संभोग के अनन्तर तथा भोजन के बाद उपयुक्त मात्रा में पीना चाहिए।१९
जल : भोजन के प्रारम्भ में जल पीने से जठराग्नि नष्ट हो जाती है तथा कृशता आती है, अन्त में पीने से कफ बढ़ता है, मध्य में पीने पर समता तथा सुख करता है। एक साथ ही अधिक जल नहीं पीना चाहिए ।२०।
___ जल को अमृत भी कहते हैं और विष भी, इसका तात्पर्य यही है कि युक्तिपूर्वक पिया गया जल अमृत तथा अयुक्ति या अव्यवस्थापूर्वक पिया गया जल विष के समान है ।२१ ___ऋतुओं के अनुसार पेय जल : वसन्त और ग्रीष्म ऋतु में कुआँ तथा झरने का, वर्षा में कुप्राँ, अथवा चुरी (कुण्ड) का, ठंड में सरसी (पोखरा) या तालाब का तथा शरद् ऋतु में सूर्य-चन्द्रमा की किरणों तथा वायु के झकोरों से शुद्ध हुए जल को पीना चाहिए ।२२
संसिद्ध जल : हवा तथा धूप से स्वच्छ हुमा, रस तथा गंध रहित जल स्वभावतः पथ्य है, यदि ऐसा न मिले तो उबाला हुआ पीना चाहिए ।२३ सूर्य
और चन्द्रमा की किरणों से संसिद्ध किया जल २४ घंटे (अहोरात्र) के बाद नहीं पीना चाहिए, दिन में सिद्ध किया गया रात्रि में तथा रात्रि में सिद्ध किया जल दिन में नहीं पीना चाहिए ।२४
१७. पृ० ११७-१८, श्लोक ३६१ १८. पृ०५१८, श्लोक ३६२ १६. वही, श्लोक ३६३ २०. श्लोक ३६७ २१. श्लोक ३६८ २२. श्लोक ३६६ २३. श्लोक ३७० २४. श्लोक ३७१
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