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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
चिउड़ा का पुराना नाम पृथुक था । पृथुक का इतिहास ब्राह्मणकाल तक पहुँचता है । श्राजकल इसके बनाने की जो प्रक्रिया है, यही उस समय भी चलती थी । १३
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६. सक्तू (५१२, ५१५) सत्तू : गेहूँ या जौ को भून कर उनमें भुजें हुए चने मिलाकर पीसे गये चूर्ण को सत्तू कहा जाता है । सत्तू का इतिहास वैदिकयुग तक पहुँचता है। ऋग्वेद (१०, ७१, २), तैत्तरीय ब्राह्मण ( ३, ८, १४) माबि में इसके उल्लेख मिलते हैं ।
सत्त पानी में उसनकर पिण्ड के रूप में तथा पतला चाटने योग्य ( श्रवले ह्य)
बनाकर खाया जाता था । उत्तर काल में घी, गुड़, चीनी आदि के साथ में भी खाया जाने लगा (सुश्रुत ४६, ४१२) । १४ वर्तमान में भी सत्तू खाने के यही तरीके प्रचलित हैं ।
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सोमदेव ने स्वास्थ्य की दृष्टि से पिण्डरूप अथवा दही के समान गाढ़ा सत्तू खाने का निषेध किया है । १५
१०. मुद्ग (५१५, ५१६) : मूँग
११. माष (५१२, ५१४ ) : उड़द १२. विरसाल (४०४ ) :
राजमाष
१३. द्विदल (३३५, उत्त० ) : दाल, जिसके दो समान टुकड़े होते हों, ऐसा प्रत्येक अन्न द्विदल कहलाता है ।
घृत, दधि, दुग्ध, मट्ठा आदि के गुण-दोष तथा उपयोग - विधि
लिखा है कि वेद तथा
घृत : घृत के गुणों का वर्णन करते हुए सोमदेव ने श्रागमों के जानकारों ने घृत को साक्षात् आयु कहा है, वैद्य लोगों ने वृद्धत्वनाशक होने से रसायन के लिए इसका विधान किया है, सारस्वतकल्प से निर्मल हुई बुद्धिवालों ने बुद्धि की सिद्धि ( धियः सिद्धये ) के लिए बताया है, ऐसा घृत द्रव स्वर्ण तथा केतकी के समान रस और छाया वाला उत्तम होता है । श्रर्थात् घृत आयुवर्द्धक, वृद्धतानिवारक तथा बुद्धि को निर्मल बनाता है । १६
दधि : दधि स्थूलता करता तथा वायु को दूर करता है । इसका सेवन
१३. ओमप्रकाश -- फूड एण्ड ड्रिंक इन एंशिएन्ट इंडिया पृ० २९०
१४. वही पृ० २६१
१२. दधिवत्सक्तून्नाद्यात् । - यश० पृ० ३१२
१६. पृ० ५१७, श्लोक ३६०, तुलना - 'आयुवै घृतम्'
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