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परिच्छेद पाँच
पाक-विज्ञान और खान-पान यशस्तिलक में खान-पान सम्बन्धी बहुविध जानकारी आती है। इस सम्पूर्ण सामग्री की त्रिविध उपयोगिता है
(१) यह सामग्री खाद्य और पेय वस्तुओं की एक लम्बी सूची प्रस्तुत करती है।
(२) इस सामग्री से दशम शताब्दी में भारतीय परिवारों, खासकर दक्षिण भारत के परिवारों की खान-पान व्यवस्था का पता लगता है।
(३) ऋतुओं के अनुसार संतुलित एवं रवास्थ्यकर भोजन की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
पाकविद्या
यशस्तिलक में षड्रसों का सर्वदा व्यवहार करते रहने को सुखावह बताया है (षड्रसाभ्यवहारस्तु सदा नृणां सुखावहः, पृ० ५१६)। मधुर, अम्ल, तिक्त, तीक्ष्ण, कषाय तथा क्षार-इन छ: रसों का शुद्ध और संसर्गपूर्वक उपयोग करके ६३ प्रकार के व्यंजन तैयार हो सकते हैं (रसानां शुद्धसंसर्गभेदेन त्रिषष्टिव्यंजनोपदेशभाज:, पृ० ५२१)। सज्जन नाम के वैद्य ने इन ६३ प्रकार के भेदों का उपदेश दिया। श्रुतसागर ने संस्कृत टीका में ६३ भेद गिनाए हैं। सोमदेव ने एक प्रसंग में समस्त सूपशास्त्राधिगतपटु पोरोगव (प्रधान रसोइया) का उल्लेख किया है (पृ० २२२ उत्त०) तथा पकाने वाले रसोइयों को समस्त रसों की प्रसाधनविधि में निपुण बताया है (सकलरसप्रसाधनविधिव्यतिकराधिकविवेकेषु पाचकलोकेषु, पृ० २२२ उत्त०) ।
भोजन बनाने के अनेक तरीके थे—धी में तलकर पकाना (सर्पिषिस्नाता, ५१७), अंगारों पर सेंक लेना (अंगारपाचितः, वही), रांधना (राद्धम्, ५१३), आधा रांधना (अर्धरद्ध, ४०४), पूरा नहीं सेकना (असमस्तसिद्ध, ४०४), थोड़ीसी अाँच मात्र दिखाना (ईषत्खिन्न, ४०५), कच्चा ही रहने देना (अपक्व. ४०५), बटलोई ढककर तथा अन्न को चलाकर अच्छी तरह पकाना (साधुपाक, ५०७), पकाते-पकाते पानी जला देना (पयसा विशुष्कम्, ५१६), पकाकर दही में डाल देना (दध्ना परिप्लुतम् ५१६), दाल इत्यादि के बने पदार्थों को कच्चे दूध, दही में
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