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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन ८७ वादित्र इत्यादि की परम्परा एक लम्बे समय तक चलती रही। स्थान-स्थान पर तोरण और पताकाएँ सजायी गयीं। यशोघ ने याचकों को वस्तु, वस्त्र और वाहन का मनचाहा दान दिया। ऐसा दान जिससे फिर कभी याचक को याचना न करना पड़े (पृ० २२७-२३१)। जात-कर्म सम्पन्न हो जाने के बाद बालक का यशोधर नामकरण किया गया । बालक क्रम से वृद्धिङ्गत होने लगा। उत्तानशयन (ऊपर को मुँह करके सोना), दरहसित (मुस्कराना), जानुचंक्रमण (घुटनों के बल सरकना), स्खलितगति (डगमगाते पैरों चलना) और गद्गदालाप (तुतलाते हुए बोलना) इत्यादि अवस्थाओं को क्रमशः पार किया। बाल्यावस्था के स्वरूप का अत्यन्त मनोरम चित्र सोमदेव ने खोंचा है । बालक को पलने में सुलाया कि वह परेशान हो रोने लगा। किसी दूसरे ने उठाया भी तो भी मचलने लगा। प्यारवश पिता ने अपनी गोद में लिया तो सीने में दुग्धपान के लिए स्तन खोजने लगा। परेशान होकर अपना ही अंगूठा मुंह में दिया। और जब अंगूठे में से कुछ न निकला तो फूट-फूटकर रोने लगा। वह देखने में प्रिय लगता और कपोलों पर ज़रा-सा स्पर्श करते ही खिलखिलाकर हँस देता । पुरोहित ने स्वस्तिवाचन के अक्षत हाथ पर रखे नहीं कि कब के मुँह में डाल लिये (पृ० २३२-२३३)। घुटनों के बल कुछ-कुछ चला, कुछ धात्री की उंगली पकड़कर चला और जैसे ही उँगली छोड़ी तो धड़ाम से गिरने को हुया कि धात्री ने उठा कर गोद में ले लिया । गोद में उठाते ही उसने धात्री की चोटी खोंचना शुरू कर दिया। बच्चों की बड़ी विचित्र स्थिति है । बालों के आभूषण को हाथों में पहना । हाथों के कड़ों को बालों में लगाया, और हाथ खालो हुए नहीं कि कमर से करधनी निकाल कर अपने ही हाथों अपने पैरों में बांध ली। और तब निश्चेष्ट होकर रोते हुए उस बालक को देखना कितना प्रिय लगता है, और कितना अजीब भी। हर्ष और विषाद की वह सम्मिश्रित स्थिति केवल अनुभवगम्य ही है। सोमदेव ने लिखा है कि जिस घर के आँगन में बालक नहीं खेलते वह घर वन के समान है। उनका जन्म व्यर्थ है जिनके बालक न हुआ। उनके शरीर में अङ्ग-विलेपन कोचड़ पोतने के समान है जिनके वक्षस्थल पर धूलि-विधूसरित पुत्र की रज न लिपटी हो । चंचल काकपक्ष, ढेर-सा काजल लगी आँखें, बहुत देर तक खेलने से निकलता हुअा उच्छ्वास और काँपते हुए ओंठ तथा गोद में लेते हो पुलकित हुआ वदन, ऐसे बालकों का मुख चुम्बन करने का जिन्हें अवसर प्राप्त होता है वे धन्य हैं (पृ० २३२-२३५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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