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________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन पारिवारिक सम्बन्ध चिर परिचित, सहज और स्वाभाविक हैं, फिर भी सोमदेव ने यशोर्घ राजा के परिवार का जो चित्र प्रस्तुत किया है वह विशेष मनोहारी है । यशोर्घ के चन्द्रमति नामकी प्रियतमा थी । वह पतिव्रताओं में श्रेष्ठ थी । कामदेव के लिए रति थी, धर्मपरायण के लिए धर्मभूमि थी, गुणों की खान थी, कला का उत्पत्तिस्थान थी, शील का उदाहरण थी, पति की आज्ञा मानने और अवसरोचित कार्य करने में प्राचार्याणी थी । पति में एक निष्ठ होने से उसका रूप, विनय से सौभाग्य तथा सरलता से कलाप्रियता उसके आभूषण बने । यशो भी चन्द्रमति को बहुत मानता था । जैसे धर्म और दया, राज्य और नीति, तप और शान्ति, कल्पवृक्ष और कल्पलता एक दूसरे से अनन्य उसी तरह चन्द्रमति और यशोर्घ का भी अनन्य सम्बन्ध था । ६ सम्बन्ध रखते हैं ८६ यशोर्घ और चन्द्रमती से यशोधर नाम का पुत्र हुआ । गर्भ से लेकर शिक्षादीक्षा पर्यन्त जो रोचक वर्णन सोमदेव ने किया है वह अन्यत्र देखने में कम प्राता है । चन्द्रमती ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न देखा कि उसके गर्भ में इन्द्र पुत्र होकर आया है । प्रातः काल उसने अपने प्रियतम को स्वप्न का वृत्तान्त बताया ( पृ० २४-२५) । गर्भवृद्धि के साथ चन्द्रमति के शारीरिक परिवर्तन भी होने लगे । दोहद इत्यादि का सुन्दर वर्णन है । गर्भ की रक्षा कुशल वैद्यों के द्वारा की जाती थी । आठ महीने के पूर्व गर्भिणी स्त्री के लिए उच्च हास का निषेव किया गया है । ७ प्रसूति का समय आने पर सूतिकासद्म ( प्रसूतिगृह) की रचना की गयी शुभ मुहूर्त में बालक का जन्म हुआ । पुत्ररत्न की प्राप्ति पर सहज ही परिवार में उल्लास का वातावरण होता है । और फिर यशोर्घ तो सम्राट था । गीत, नृत्य, ५. अहो महीपाल नृपस्य तस्य स्ववंशजा चन्द्रमति प्रियासीत् । पतिव्रतत्वेन महीसपत्न्याः प्राप्तोपरिष्टात्पदवी यया हि । साभूद्र तिस्तस्य मनोभवस्य धर्मावनि धर्मपरायणस्य । गुणैकधाम्नो गुरल भूमिः कला विनोदस्य कलाप्रसूतिः ॥ शीलेन दृष्टान्तपदं जनानां निदर्शनत्वं पतिसुव्रतेन । पत्युनिदेशावसरोपचारादाचार्यकं या च सतीषु लेभे ॥ रूपं भर्तरिभावेन सौभाग्यं विनयेन च । कलावत्वं ऋजुत्वेन भूषयामास ह्यात्मनः ॥ पृ० ३२२ ६. वही, पृ० २३० ७. मासोऽष्टमात्पूर्वमिदं त्वयोच्चैर्हासादिकं कर्म न देवि कार्यम् । – १० २२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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