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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन २८. जितेन्द्रिय जो सब इन्द्रियों को जीतकर अपने द्वारा अपने को जानता है, वह गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, उसे जितेन्द्रिय कहते हैं । ४७ 1 २६. क्षपण जो मान, माया, मद और श्रमर्ष का नाश कर देता है उसे क्षपण कहते ४८ ३०. श्रमण जगह-जगह विहार करके भी जो श्रान्त नहीं होता उसे श्रमण कहते हैं । ४९ ३१. आशाम्बर जो लालसानों को नाश अथवा प्रशान्त कर देता है उसे आशाम्बर कहते हैं । 10 ३२. नग्न जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित होता है उसे नग्न कहते हैं । १ ८ १ ३३. ऋषि क्लेश समूह को रोकने वाले को मनीषिजन ऋषि कहते हैं । ५२ ३४. मुनि श्रात्मविद्या में मान्य व्यक्ति को महात्मा लोग मुनि कहते हैं । ५३ ३५. यति जो पाप रूपी बन्धन के नाश करने का यत्न करता है वह यति कहलाता ४७. जित्वेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेत्यात्मानमात्मना । गृहस्थो वानप्रस्थो वास जितेन्द्रिय उच्यते ॥ कल्प ४४, श्लो० ८५८ ४८. मानमायामदामर्षक्षपनात्क्षपणः स्मृतः । - कल्प ४४, श्लो० ८५९ ४९. यो न श्रान्तो भवेद्भ्रान्तेस्तं विदुः श्रमणं बुधाः ॥ - वही ५०. यो हताशः प्रशान्तश तमाशाम्बर मूचिरे । कल्प ४४, श्लो० ८६० ३१. यः सर्वमङ्गसंत्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः ॥ - कल्प ४४, श्लो० ८६० ५२. रेषपात्क्लेश राशीनामृषिमा हुर्मनीषिणः । - कल्प ४४, लो० ८६१ ५३. मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः ॥ कल्प ४४, लो० ८६० ५४. यः प पपाशनाशय यतते स यतिर्भवेत् । -कल्प ४४, श्लो० ८६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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