________________
यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
२३ शंसितव्रत ( ४०८ )
शंसितव्रत का अर्थ श्रुतदेव ने दिगम्बर साधु किया है। शंसितव्रत अशुभ का दर्शन या स्पर्श तो दूर रहा मन में उसके विचार आ जाने से भी भोजन छोड़ देते थे।४०
२४. श्रमण ( ९२, ९३ ) जैन साधु
दिगम्बर मुनि के अर्थ में श्रमण का प्रयोग हुअा है।४१ श्रमणों का पूरा संघ४२ गाँव, नगर आदि में विहार करता था ।४३ संघ में विविध विषयों में निष्णात अनेक साधु रहते थे । ४४
२५. साधक (४९)
मन्त्र-तन्त्र आदि की सिद्धि के लिए विकट साधना करने वाले साधु साधक कहलाते थे । सोमदेव ने अपने सिर पर गुग्गुल जलाने वाले साधकों का उल्लेख किया है।४५
२६. साधु ( ३७७, ४०५, ४०७ उत्त०)
साधु शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है तथा सभी स्थानों पर जैन साधु के अर्थ में आया है।
२७. सूरि ( ३७७ ) जैनाचार्य के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है।
इनके अतिरिक्त सोमदेव ने परिव्रजित व्यक्तियों के निम्नलिखित नामों की निरुक्तियाँ ४६ इस प्रकार दी हैं
४०. आस्तां तावदशुभस्य दर्शनं स्पर्शनं च, किन्तु मनसाप्यस्य परामर्ष शंसितव्रत इव
प्रत्यादिशत्याशम् । -पृ. ४०८ ४१. श्रमण इव जातरूपधारिएः -पृ. १३ ४२. अनूचानेन श्रमण संघेन ।-पृ. १३ ४३. विहरमाणः ।-पृ. ८४ ४४. वही ४५. साधकलोकनिजशिरोदह्यमानगुग्गुल (सम् ।-४१ ४६. तत्तद्गुणप्रधानत्वात्यतयोऽनेकधा स्मृताः । निरुक्ति युक्तितस्तेषां वदतो मन्निबोधत ॥
-कल्प ४४, श्लोक ८५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org