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________________ यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन था। मुमुक्षु पर्व-त्यौहार के दिनों में भी मुट्ठीभर सब्जी या जौ के अतिरिक्त और कुछ नहीं खाते थे।३४ १६. यति ( २८५ उत्त०, ३७२ उत्त०, ४०६ उत्त० ) यति शब्द का भी कई बार प्रयोग हुआ है । यह शब्द भी जैन साधु के लिए प्रयुक्त होता है। सोमदेव के उल्लेखानुसार यति अपने नियम और अनुष्ठान में बड़े पक्के होते थे ।३५ यति भिक्षा भी करते थे ।३६ २० यागज्ञ ( ४०६ उत्त० ) सम्भवतः यज्ञ करने वाले वैदिक साधु यागज्ञ कहलाते थे। सोमदेव ने यागज्ञों के साथ जैनों को सहावास, सहालाप तथा उनकी सेवा करने का निषेध किया है ।३७ २१. योगी ( ४०९) ध्यान में मस्त हुआ साधु योगी कहलाता था। सोमदेव ने लिखा है कि यह सोचकर कि दूसरे जीव को थोड़ा-सा भी दुःख पहुँचाने पर वह बोये गये बीज की तरह जन्मान्तर में सैकड़ों प्रकार से फल देता है, इसलिए योगी दयाभाव से तथा पापभीरु होने से वनस्पति के फल या पत्ते भी स्वयं नहीं तोड़ता ।३८ २२. वैखानस (४०) - वैखानस साधुओं के विषय में सोमदेव ने लिखा है कि ये बाल-ब्रह्मचारी होते थे तथा स्नान, ध्यान और मन्त्रजाप-खासतौर से अघमर्षण मन्त्रों का जाप करते थे।३९ ३४. पर्वरसेष्वपि दिवसेषु मुमुक्षुरिव न शाकमुष्टेर्वापरमाहरत्याहारम् ।-पृ. ४०१ ३५. निजनियमानुष्ठानैकतानमनसि ..यतोश्वर ।-पृ० २६५, उत्त० ३६. गृहस्थो वा यतिऽपि जैन समयमाश्रितः। ___यथाकालमनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभिः ॥-पृ० ४०६ ३७. शाक्यनास्तिकयागजटिलाजीवकादिभिः । सहावासं सहालापं तत्सेवां च विवर्जयेत् ।।-पृ० ४०६, उत्त. ३८. ईषदप्यशुभमन्यत्रोत्पादितमात्मन्युप्तबीजमिव जन्मान्तरे शतशः फलतीति दयालुभावाद्दरितभीरुभावाच्च न दलं फलं वा योगीव स्वयमवचिनोति वनस्पतीन् । -पृ० ४०६ ३६. सर्वदा शुचिरिव ब्रह्मचारी तथापि लोकव्यवहारप्रतिपालनार्थ देवोपासनायामपि समाप्लुत्य वैखानस इव जपति जलजस्तूवैजनजनितकल्मषप्रघर्षणायाघमर्षणतन्त्रान्मत्रान् ।-पृ० ४०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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