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________________ ७८ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन १०. नास्तिक (३०६ उत्त०) सोमदेव ने जैनों के लिए नास्तिकों के साथ आलाप, आवास आदि का निषेध किया है। चार्वाक अथवा बृहस्पति के शिष्यों के लिए सम्भवतः यहाँ इस शब्द का प्रयोग हुआ है। अन्य साधुओं के लिए निम्नांकित नाम आए हैं११. परिव्राजक (३२७ उत्त०), परिव्राट (१३९ उत्त०) १२. पारासर (९२) परासर ऋषि के शिष्य पारासर कहलाते थे। १३. ब्रह्मचारी (४०८) १४. भविल (४०८) भविल शब्द का अर्थ श्रुतदेव ने महामुनि किया है ।३० भविल साधु पैदल चलते थे तथा छोटे जीवों के प्रति महाकृपालु होने से लकड़ी की चप्पल (खड़ाउ) भी नहीं पहनते थे ।३१ १५. महाव्रती (४९) महाव्रती का दो बार उल्लेख है। चण्डमारी के मन्दिर में महाव्रती साधू अपने शरीर का मांस काटकर खरीद-बेच रहे थे । ३२ ये साधु हाथ में खट्वांग लिये रहते थे । २३ कौल की तरह ये भी शैव मतानुयायी थे। १६. महासाहसिक ( ४९) महासाहसिक भी शैव होते थे। सोमदेव ने इनकी आत्मरुधिरपान जैसी भयंकर साधना का उल्लेख किया है। १७. मुनि (५६, ४०४ उत्त० ) जैन साधु के लिए यशस्तिलक में अनेक बार मुनि पद का प्रयोग हुआ है। अभी भी जैन साधु मुनि कहलाते हैं। १८. मुमुक्षु (४०९) मोक्ष की ओर उन्मुख तथा अनवरत साधना में संलग्न साधु मुमुक्षु कहलाता ३०. भविल इव--महामुनिरिव पृ० ४०८; सं० टो. ३१. महाकृपालुतया सत्त्वसंमद भयेन पदात्पदमपि भ्रमम्भविल इव नादत्ते दार। पादपरित्राणम् ।-पृ० ४०८ ३२. महावतिकवीरक्रय विक्रीयमाणरववपुलूनवल्लूरम् | -पृ. ४९ ३३. सा कालमहाव्रतिना खट्वांगकरंकतां नीता।-पृ० १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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