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यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन
सोमदेव के अनुसार कापालिक त्रिक मत को मानते थे । त्रिक मत के अनुसार मद्य-मांस पी-खाकर प्रसन्नचित्त होकर बायीं ओर स्त्री को बिठाकर स्वयं भी शिव और पार्वती के समान आचरण करता हुआ शिव की आराधना करे । २८ ५. कुमारश्रमण (९२)
बाल्यवस्था में जो लोग साधु हो जाते थे उन्हें कुमारभ्रमण कहा जाता था । सोमदेव ने कुमारश्रमण के लिए 'असं' जातमदनफसङ्ग' विशेषण दिया है । एक स्थान पर श्रमण संघ (९३) का भी उल्लेख है । उक्त दोनों स्थलों पर श्रमण शब्द जैन साधु के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
६. चित्रशिखण्डि (९२).
चित्रशिखण्डि का अर्थ श्रुतदेव ने सप्तर्षि किया है । मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ, ये सात ऋषि सप्तर्षि कहलाते थे । सोमदेव ने इसका विशेषरण 'सब्रह्मचारिता' दिया है । ये सात ऋषि आचार, विचार और साधना में समान होने के कारण ही एक श्रेणी में बाँधे गये । इन ऋषियों के शिष्य भी संभवत: चित्रशिखण्डि के नाम से प्रसिद्ध हो गये हों ।
७. जटिल (४०६ उत्त० )
यशस्तिलक में जैनों के लिए जटिलों के साथ आलाप, आवास और सेवा का निषेध किया गया है | २९ जटिल भी शैव मत वाले साधु कहलाते थे ।
८. देशयति (२६५, ४०६ उत्त० )
देशयति या देशव्रती एकादश प्रतिमाधारी जैन श्रावक को कहते हैं । मुनि के एकदेश संयम का पालन करने के कारण इसे देशव्रती कहा जाता है । यह
श्रावक या तो दो चादर और एक लंगोटी रखता है या केवल एक लंगोटी मात्र । चादर और लंगोटी वाले को क्षुल्लक तथा केवल लंगोटी वाले को ऐलक कहा जाता है ।
६. देशक (३७७ उत्त० )
जो जैन साधु पठन-पाठन का कार्य करते हैं उन्हें उपाध्याय कहा जाता है । उपाध्याय के अर्थ में यशस्तिलक में 'देशक' शब्द आया है ।
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२८. तथा च त्रिकम नोक्ति - ' मदिरामादमेदुरवदनस्त (सरसप्रसन्न हृदयः सव्यपार्श्व विनिवेशितशक्तिः शक्तिमुद्रासनधरः स्वयमुमामहेश्वरायमाणः कृष्णया सर्वाणीश्वरमाराधयेदिति । पृ० २६६, उत्त०
२६. जटिल, जीवकादिभि: । सहावासं सहालाप तत्सेवां च विवर्जयेत् । - पृ० ४०६
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