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________________ ७६ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन तरह कर्मन्द मुनि के शिष्य कर्मन्दी कहलाते होंगे । यशस्तिलक के उल्लेख से ज्ञात होता है कि कर्मन्दी भिक्षु एकान्त रूप से मोक्ष की साधना में लगे रहते थे तथा 'स्वैरकथा और विषय - सुख में किञ्चित् भी रुचि नहीं दिखाते थे । २३ ३. कापालिक ( २८१ उत्त० ) कापालिक शैव सम्प्रदाय की एक शाखा के साधु कहलाते थे । सोमदेव ने कापालिक का सम्पर्क होने पर जैन साधु को मन्त्र - स्नान बताया है । २४ कापालिक साधु का एक सम्पूर्ण चित्र क्षीरस्वामी ने अपने प्रतीक नाटक प्रबोधचन्द्रोदय ( श्रध्याय ३ ) में प्रस्तुत किया है । एक कापालिक साधु स्वयं अपने विषय में इस प्रकार जानकारी देता है— करिंणका, रुचक, कुण्डल, शिखामरणी, भस्म और यज्ञोपवीत, ये छह मुद्राषट्क कहलाते हैं । कपाल और खट्वांक उपमुद्राएँ हैं । कापालिक साधु इनका विशेषज्ञ होता है तथा भगासनस्थ होकर आत्मा का ध्यान करता है । मनुष्य की बलि देकर शिव के भैरव रूप की पूजा की जाती है । भैरवी की भी खून के साथ पूजा की जाती है । कापालिक कपाल में से रक्त पान करते हैं । २५ ४. कुलाचार्य या कौल (४४ ) कापालिकों की तरह कौल भी शैव सम्प्रदाय की एक शाखा थी । सोमदेव ने कुलाचार्य का दो बार उल्लेख किया है ( ४४, २६९ उत्त० ) मारिदत्त को एक कुलाचार्य ने ही विद्याधर लोक को जीतने वाली करवाल की प्राप्ति के लिए चण्डमारी को सभी जीवों के जोड़ों की बलि देने की बात कही थी । २६ सोमदेव के कथन के अनुसार कौल सम्प्रदाय की मान्यताएँ इस प्रकार थींसभी प्रकार के पेय-पेय, भक्ष्य - अभक्ष्य आदि में निःशंक चित्त होकर प्रवृत्ति करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । २७ २३. एकान्ततः परमपदस्पृहयालुतया स्वैरकथास्वपि कर्मन्दीव न तृप्यति विष वषमोल्लेखेषु विषयसुखेषु । - पृ० ४०८ २४. संगे कापालिकात्रेयी... | आप्लुत्य दण्डवत्सम्यग्ज पेन्मन्त्रमुपोषितः । २५ उद्धृत् - हान्दिकी - यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर, पृ० २६. विद्याधर लोकविजयिनः करवालस्य सिद्धिर्भवतीति वीर भैरव नाम कात्कुला - पृ० २८१, उत्त ३५६ चार्य कादुपश्रुत्य | - पृ° ४४ २७. सर्वेषु पेयापेयभक्ष्याभक्ष्यादिषु निःशङ्कचित्तवृत्तात्, इति कुलाचार्याः ॥ - पृ० २६६, उत्त० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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