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________________ ७४ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन पुरुषार्थ (मोक्ष) की साधना करना इस अवस्था का मुख्य ध्येय था।९ नवयुवक को प्रवजित होने का लोग निषेध करते थे ।१० प्रवजित होते समय लोग अपने परिवार के सदस्यों तथा इष्ट-मित्रों आदि से सलाह और अनुमति लेते थे। यशोधर कहता है कि नयी अवस्था होने के कारण माता, पत्नी (महारानी), युवराज (पुत्र), अन्तःपुर की स्त्रियाँ, पुरवृद्ध, मन्त्रिगण तथा सामन्त-समूह प्रवजित होने में तरह-तरह से रुकावट डालेगे । ११ सम्राट यशोधर जब प्रवजित होने लगे तो उन्होंने अपने पुत्र को बुलाकर अपना मनोरथ प्रकट किया । १२ आश्रम-व्यवस्था के अपवाद यद्यपि सामान्य रूप से यह माना जाता था कि बाल्यावस्था में विद्याध्ययन, युवावस्था में गृहस्थाश्रम प्रवेश तथा वृद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करना चाहिए, किन्तु इसके अपवाद भी कम न थे। यशस्तिलक के प्रमुखपात्र अभयरुचि तथा अभयमति अपनी आठ वर्ष की अवस्था में ही प्रवजित हो गये थे । १२ एक स्थल पर यशोधर श्रुति की साक्षी देता हुअा कहता है कि श्रुति का यह एकान्त कथन नहीं है कि 'बाल्यावस्था में विद्या आदि, यौवन में काम तथा वृद्धावस्था में धर्म और मोक्ष का सेवन करो, प्रत्युत यह भी कथन है कि आयु अनित्य है इसलिए यथायोग्य रूप से इनका सेवन करना चाहिए । २४ जैनागमों में बाल्यावस्था में प्रवजित होने के अनेक उल्लेख मिलते हैं। अतिमुक्तककुमार इतनी छोटी अवस्था में साधु हो गया था कि एक बार वर्षा के पानी को बाँधकर उसमें अपना पात्र नाव की तरह तैराकर खेलने लगा था ।१५ गजसुकुमार गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के पूर्व ही संन्यस्त हो गये थे । १६ ९. चिराय प्रार्थित चतर्थपुरुषार्थ समर्थनमनोरथसाराः।-पृ. २८४ १०. नवे च क्यसि मयि गंजातनिर्वे दे विधास्यन्ते...अन्तरायाः।-पृ० ७०, उत्त' 1. वही, पृ० ७०-७१, उत्त. १२. वही, पृ० २८४ १३. अष्टवर्षदेशीयतयाद्रूपायोग्य त्वादिमां देशयतिश्लाघनीयाशां दशामाश्रित्य । -पृ० २६५, उत्त० ५४. बाल्ये विद्यादीनान् कुर्यात्, कामं यौवने स्थविरे धर्म' मोक्ष चैत्यपि नायमे कान्ततोऽनित्यत्वादायुषो यथोपपदं वा सेवेतैत्यपि श्रुतिः ।-पृ० ७६, उत्त. १५. भगवती. श४ १६. अंतगडदसासुत्त, वर्ग ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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