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________________ परिच्छेद तीन आश्रम-व्यवस्था और संन्यस्त व्यक्ति सोमदेवकालीन समाज में प्राश्रम-व्यवस्था के लिए भी वैदिक मान्यताएं प्रचलित थीं। यद्यपि यशस्तिलक में स्पष्ट रूप से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का उल्लेख नहीं है फिर भी आश्रम व्यवस्था की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। बाल्यावस्था को विद्याध्ययन का काल, यौवनावस्था को अर्थोपार्जन का काल तथा वृद्धावस्था को निवृत्ति का काल माना जाता था । गुरु और गुरुकुल विद्याध्ययन की धुरी थे। बाल्यावस्था विद्याध्ययन का स्वर्णकाल माना जाता था। यदि बाल्यकाल में विद्या नहीं पढ़ी तो फिर जीवनभर प्रयत्न करते रहने के बाद भी विद्या पाना कठिन है ।२ जिनकी विधिवत् शिक्षा नहीं होती या जो विद्याध्ययन काल में ही प्रभुता या लक्ष्मीसम्पन्न हो जाते हैं, वे बाद में निरंकुश भी हो जाते हैं ।३ राजपुत्र तथा जन साधारण सभी के लिए यह समान बात है।४ __ बाल्यावस्था या विद्याध्ययन के उपरान्त गोदान दिया जाता तथा विधिवत् गृहस्थाश्रम प्रवेश किया जाता था ।५ युवावस्था में लोग अपने गुरुजनों की सेवा . का विशेष ध्यान रखते थे।६ वृद्धावस्था में समस्त परिग्रह त्यागकर संन्यस्त होना आदर्श था। इस अवस्था में अधिकांशतया लोग घर छोड़कर तपोवन चले जाते थे।८ चतुर्थ १. बाल्यं विद्यागमैर्यत्र यौवन गुरुसेवया। ___ सर्वसंगपरित्यागैः संगतं चरमं वयः॥ --पृ० १९८) २. न पुनरायुः स्थितय इवानुपासितगुरुकुलस्थ यत्नवत्योऽपि सरस्वत्यः।-पृ०४३२ ३. बालकाल एव लब्धलक्ष्मीसमागमः, असंजातविद्यावृद्धगुरुकुलोपासन:, निरंकुशता __ नीयमानः ।-पृ०२६ ४. वही १० २३६-२३७ ५. परिप्राप्तगोदानावसरश्च । -पृ. ३२७ ६. यौवन गुरुसेवया । --पृ० १६८ ७. सर्व संगपरित्य गैः संगतं चरमं वयः। -१० १९८ ८. कुलवृद्धानां च प्रतिपन्न...तपोवनलोकत्वात् । प० २६ परंवयः परिणतिदूतीनिवेदितनिसर्गप्रणयायास्तपोवनाश्रमरमायाः । -पृ. २८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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