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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
गृहस्थों के दो धर्म व्रती और अवती सम्यग्दृष्टि के द्योतक हैं। अवती सम्यग्दृष्टि का चौथा गुणस्थान होता है। इस गुणस्थानवी जीव के दर्शनमोहनीयकर्म की मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व तो होता है, किन्तु चारित्रमोहनीय की अप्रत्याख्यानावरण कषाय आदि प्रकृतियों के उदय होने से संयम बिलकुल नहीं होता। यहाँ तक कि वह इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरत नहीं होता।'५ सोमदेव द्वारा प्रतिपादित लौकिक धर्म को प्रमाण मानने वाला गृहस्थ जैन दृष्टि से इसी गुणस्थान के अन्तर्गत आता है।
पारलौकिक धर्म को स्वीकार करने वाले गृहस्थ के लिए सोमदेव ने स्पष्ट रूप से केवल आगमाश्रित विधि को ही प्रमाण बताया है। यह गृहस्थ सैद्धान्तिक दृष्टि से पञ्चम गुणस्थानवर्ती देशव्रती सम्यग्दृष्टि माना जाएगा। यहाँ दर्शनमोहनीयकर्म की अप्रत्याख्यानावरण कषायों का भी उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने से जीव देश-संयम का पालन करने लगता है ।१६ इस गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि केवल उसी लौकिक विधि को प्रमाण मानता है जिसके मानने से उसके सम्यक्त्व की हानि न हो तथा व्रत में दोष न लगे। सोमदेव ने भी इस बात को कहा है, जिसका उल्लेख ऊपर कर चुके हैं।
इस तरह सोमदेव ने जिस कुशलता के साथ उस युग के सामाजिक जीवन में प्रचलित मान्यताओं के साथ जैन चिन्तन के मौलिक सिद्धान्तों का निर्वाह किया, उसका शाश्वत मूल्य है। जिनसेन की तरह सोमदेव ने वैदिक मन्तव्यों को जैन साँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं किया, प्रत्युत उन्हें वैदिक ही बताया। सामाजिक निर्वाह के लिए यदि कोई उन्हें स्वीकृत करता है तो करे, किन्तु इतने मान से वे जैन मन्तव्य नहीं हो जाते। __ सोमदेव के चिन्तन की यह स्पष्ट फलश्रुति है कि सामाजिक जीवन के लिए किन्हीं प्रचलित लौकिक मूल्यों को स्वीकृत कर लिया जाये, किन्तु उनको मूल चिन्तन के साथ सम्बद्ध करके सिद्धान्तों को हानि नहीं करनी चाहिए । सामाजिक मूल्य परिवर्तनशील होते हैं। देश, काल और क्षेत्र के अनुसार उनमें परिवर्तन होते रहते हैं। यह भी निश्चित है कि सैद्धान्तिक चिन्तन व्यवहार की कसौटी पर सर्वदा पूर्ण रूपेण सही नहीं उतरता, किन्तु इतने मात्र से मूल सिद्धान्तों में परिवर्तन नहीं करना चाहिए।
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१५. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा २५, २६, २६ १६. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ३०
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