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उपासकदशांग : एक परिशीलन को 'मैं मारता हूँ" इस प्रकार की संकल्पी हिंसा का त्याग कर देना चाहिए किन्तु खेती आजीविका करते हुए जो आरम्भिक हिंसा होती है, वह श्रावक के लिए दुस्त्यज है।' यहाँ सांकल्पिक हिंसा के त्याग को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हिंसक प्राणियों की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए क्योंकि इसमें अतिप्रसंग दोष आता है ।
उपर्युक्त शास्त्रों और ग्रन्थों से यह स्पष्ट होता है कि गृही स्थूल रूप से या एक देश रूप से हिंसा का त्याग करे। शास्त्रीय दृष्टि से पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु एवं वनस्पति की हिंसा सूक्ष्म कही जाती है, एवं हलन-चलन करने वाले बेइन्द्रि, तेइन्द्रि, चउरिन्द्रि और पंचेन्द्रिय की हिंसा स्थूल कही गयी है। ये त्रसजीव कहे जाते हैं। इसके साथ-साथ जिन्हें अपने चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है जिसको चेतना सुसुप्त होती है, ऐसे जीवों की हिंसा से भी श्रावक विवेक युक्त होकर बचता है। यद्यपि गृहस्थावास में रहते हुए भोजनादि की समस्या का समाधान एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों को उठाये रखने में सूक्ष्म हिंसा से बच पाना कठिन होता है, अतः वह अपने आपको त्रस हिंसा से अलग होने की प्रतिज्ञा में ही बांधता है।
एक और तथ्य यह है कि श्रावक स्थूल हिंसा में भी संकल्पी हिंसा का त्याग करता है। किसी को "मैं मारूँ" इस भावना से हिंसा करना संकल्पी हिंसा है । परन्तु गृहस्थावास में रहने के कारण, कभी मकान निर्माण के प्रसंग से, कभी खेत में हल जोतने के प्रसंग से, कभी सामाजिक व्यवस्था में किसी अनिष्टकारी को हटाने, राज्यादि कार्यों में चोर-डकैतों को दण्ड देने इत्यादि कार्यों में कई स्थल जीवों की घात का प्रसंग बनने पर श्रावक स्थूल हिंसा के (आरम्भी हिंसा) त्याग कैसे निभा सकता है ? इसलिए किसी की घात करने की इच्छा नहीं करते हुए भी दैनिक और व्यावहारिक कार्य करते हुए किसी प्राणी का वध हो जाय तो वह आरम्भी हिंसा कहलाती है, जिसे अहिंसाणुव्रती श्रावक को करनी पड़ती है। अष्टमूलगुण
अहिंसाणुव्रत के पालन के प्रसंग में हिंसा के विविध प्रकारों से बचने के लिए कुछ जैन आचार्यों ने अष्टमूलगुणों का भी उल्लेख किया है।
१. सागारधर्मामृत, अध्याय, ४, श्लोक, १२
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