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श्रावकाचार
चारित्रपाहड में एक ही गाथा में अणुव्रतों के स्वरूप का विश्लेषण कर दिया है। उन्होंने लिखा है कि स्थूल त्रसकाय का घात, स्थूल असत्य, स्थल अदत्ता यानि बिना दिया धन, परस्त्री का त्याग और परिग्रह तथा आरम्भ का परिमाण, पाँच अणुव्रत है।' रत्नकरण्डकश्रावकाचार में मन, वचन, काय इन तीनों योगों के संकल्प से कृत, कारित व अनुमोदना से जो त्रस जीवों को नहीं मारता है,उसे अहिंसा अणुव्रती कहा है। २ स्वामी कार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा, में जो अपने समान दूसरों को मानता है तथा दया सहित व्यवहार करता है, अपनी निन्दा एवं गर्हा से युक्त है, महान् आरम्भों का परिहार करता हुआ स जीवों के घात को तीन करण तीन योगों से नहीं करता है उसे अहिंसा अणुव्रत का धारी कहा है। पुरुषार्थसिद्धयपाय अहिंसा अणुव्रत के स्वरूप में आचार्य कुन्दकुन्द का अनुमोदन करता है। उपासकाध्ययन में देवता के लिए, अतिथि के लिए, पितरों के लिए, मंत्र की सिद्धि के लिए, औषधि के लिए या भय से सब प्राणियों की हिंसा नहीं करना अहिंसाव्रत कहा है।५ वसूनन्दि-श्रावकाचार में त्रस जीवों की घात एवं निष्कारण एकेन्द्रिय जीवों की भी घात न करने को अहिंसावत कहा है। सागारधर्मामृत में पं० आशाधर ने उपर्युक्त सभी का खुलासा करते हुए कहा है कि श्रावक अनुमोदना से विरत नहीं हो सकता है अतः वह तीन योग तथा दो करण से हिंसा का त्याग करता है। यहीं पर सांकल्पिक हिंसा के त्याग का उपदेश देते हए कहते हैं कि गहवास आरम्भ के बिना एवं आरम्भ हिंसा के बिना नहीं होता । इसलिए गृहवासी
१. थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य ।
परिहारो पर महिला परग्गहारंभ परिमाणं -चारित्रपाहुड, २५ २. सङ्कल्पात कृत कारित मननाधोगत्रयस्य चरसत्त्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः ।।
-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ५३ ३. कातिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक ३०-३१ ४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ७५ ५. उपासकाध्ययन, ७/३०५ ६. वसुनन्दि-श्रावकाचार, श्लोक २०९ ७. सागाराधर्मामृत, अध्याय ४, श्लोक ५
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