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उपासकदशांग : एक परिशीलन इस प्रकार हिंसा के स्वरूप तथा प्रकार की सही जानकारी प्राप्त कर, श्रावक उससे बचने का जो प्रयत्न करता है वही उसका अहिंसाणुव्रत है। उसके स्वरूप को कालक्रमानुसार इस प्रकार समझा जा सकता है :
अहिंसा का स्वरूप
विभिन्न आगम ग्रन्थों व उत्तरवर्ती साहित्य में अहिंसा अणुव्रत के सम्बन्ध में जो वर्णन प्राप्त होता है, उसे संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है :
स्थानांगसूत्र में अणुव्रतों के 'स्थूलप्राणातिपात, स्थूलमृषावाद, स्थूलअदत्तादान, स्थूलमैथुन एवं स्थूलपरिग्रह का त्याग' ये पांच भेद गिनाये हैं।' प्रश्नव्याकरणसूत्र में केवल सार रूप में अहिंसा आदि व्रतों के ऊपर प्रकाश डाला गया है। श्रावक-धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में उपासकदशांगसूत्र के प्रथम अध्याय में आनन्द श्रावक अहिंसा अणुव्रत को ग्रहण करता हुआ प्रतिज्ञा करता है :
"थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए
दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा" अर्थात् मैं यावज्जीवन मन, वचन एवं शरीर से स्थूल प्राणातिपात न स्वयं करूँगा, न कराऊँगा।२ आवश्यकसूत्र में भी कहा गया है कि श्रावक स्थूल प्राणातिपात का त्याग करता है। वह प्राणातिपात दो प्रकार का होता है-संकल्पजा तथा आरम्भज्जा । इसमें से श्रावक संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, आरम्भी हिंसा का नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने
१. पंचाणुव्वया पण्णता तंजहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावा
याओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, थूलाओ मेहुणाओ वेरमणं, इच्छापरिमाणे ॥
-स्थानांगसूत्र, ५/१/२ २. उवासगदसाओ, १/१३ ३. “थूलगं पाणाइवाइयं समणोवासओ पच्चक्खाई से पाणाइवाइए दुविहे
पण्णत्ते तंजहा-संकप्पओ य आरंभओ। तत्थ समणोवासओ संकप्पओ जावज्जीवाए पच्चक्खाइ नो आरंभओ।"
-मुनि पुष्कर-श्रावक धर्मदर्शन, पृष्ठ ११० से उद्धृत
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