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उपासकदशांग : एक परिशीलन विभिन्न अणुव्रत एवं अतिचार . अहिंसाणुव्रत
अहिंसा अणुव्रत के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए आचार्यों ने पहले हिंसा के स्वरूप का वर्णन किया है। हिंसा के त्याग को मूल रूप से अहिंसा कहा जाता है। इस कारण पहले यह जानना जरूरी है कि हिंसा का वास्तविक स्वरूप क्या है ? हिंसा का स्वरूप
आचारांगसूत्र में हिंसा का स्वरूप बताते हुए कहा है कि प्रमाद व काम भोगों में जो आसक्ति होती है, वही हिंसा है।' उपासकदशांगसूत्र व आवश्यकसूत्र में प्राणातिपात को हिंसा कहा है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि प्रमाद व कषायवश किसी भी प्राणी के प्राणों को मन, वचन व काय से बाधा पहुँचाना हिंसा है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने प्रमत्त योग से प्राणों का व्यपरोपण करने को हिंसा कहा है।४ रत्नकरण्डकश्रावकाचार में स्थूल प्राणघात को हिंसा मानकर इससे विरत होने को अहिंसा अणुव्रत कहा है। पुरुषार्थसिद्धयपाय में कषाय के वशीभूत होकर द्रव्य व भावरूप से प्राणों के घात को हिसा कहा है।
अतः सार रूप में यह कहा जा सकता है कि किसी के प्रति रागादि एवं कषाय-भावों का उत्पन्न होना हिंसा है। इन्हीं भावों के कारण किसो के प्राणों का घात होता है। अतः हिंसा केवल शरीरघात तक सीमित नहीं है, उसका सम्बन्ध मानसिक एवं भवनात्मक प्राणघात से भी है। १. "एत्थसत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा परिणाया भवन्ति"
-आचारांग, १/४/३६ २. क. तप्पढमाए थूलगं पाणाइवाय -उवासगदसाओ, १/१३ ख. थूलगं पाणाइवाय पच्चक्खाइ ।
-आवश्यकसूत्र, पहला अणुव्रत ३. प्रश्नव्याकरण-सूत्र, १/५/१ ४. “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा"। -तत्त्वार्थसूत्र ७/१३ ५. "प्राणातिपात स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रत भवति"
-रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १/५२ ६. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ४३
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