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श्रावकाचार
आशाधर ने किसी गृह निरत श्रावक में अनुमोदना को छोड़ कर शेष छह भंगों के द्वारा स्थूल हिंसादि से निवृत होना अहिंसा आदि अणुव्रत कहा है।' योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि
विरति स्थल हिंसादेद्विविध त्रिविधादिना ।
अहिंसादोनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ।। अर्थात् दो करण तीन योग आदि से स्थूल हिंसा आदि दोषों के त्याग को जिनेन्द्र देव ने अणुव्रत कहा है ।२ ।
इस प्रकार जैन आगमों से लेकर उत्तरवर्ती ग्रन्थों में अणव्रतों के स्वरूप के सम्बन्ध में जो जानकारी प्राप्त होती है, उससे अणुव्रत का सामान्य लक्षण स्पष्ट हो जाता है।
शाब्दिक दृष्टि से अणुव्रत का अर्थ छोटा, लघु तथा अल्पव्रत किया जा सकता है किन्तु हिंसा आदि पापों का स्थूल त्याग (त्रस जीव सम्बन्धी त्याग) ही अणुव्रत की संज्ञा से अभिहित किया जाता है । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म एवं परिग्रह का एक देश ( अंश ) त्याग, या यों कहें कि किसी भी पाप को दो करण तीन योग से त्यागना, अणुव्रत होता है। यहाँ दो करण से तात्पर्य न स्वयं करना न करवाना और तीन योग से तात्पर्य मन, वचन, काय से है। अणुव्रतों को संख्या--
प्रायः सभी जैन ग्रन्थों में अणुव्रतों की संख्या पाँच कही गयी है । इनके नाम इस प्रकार हैं :
१. अहिंसा अणुव्रत (प्राणवध का त्याग) २. सत्याणुव्रत ( मृषावाद का त्याग ) ३. अस्तेयाणुव्रत ( अदत्तादान का त्याग) ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत ( परदारागमन त्याग) ५. अपरिग्रह अणुव्रत ( परिग्रह परिमाण )
इनके स्वरूप को कालक्रम एवं विकासक्रम की दृष्टि से इस प्रकार समझा जा सकता है।
१. सागारधर्मामृत, ४/५ २. योगशास्त्र, २/१८
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