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श्रावकाचार
है। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा और सागारधर्मामत में भी रत्नकरण्डकश्रावकाचार का क्रम ही अपनाया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन साहित्य में प्राचीन समय से हो श्रावकाचार का निरूपण प्राप्त होता है। देश-काल की आवश्यकतानुसार श्रावकाचार में क्रमशः विकास भी हुआ है। किन्तु उसके मूल में मनुष्य के आचरण को संयमित, धर्ममय एवं नैतिक बनाने की भावना रही है। आगे श्रावकाचार के विशिष्ट मूल्यांकन से जैन धर्म में साधना का स्वरूप अधिक स्पष्ट हो सकेगा।
अणुव्रत शब्द का अर्थ, स्वरूप एवं वर्गीकरण
श्रावक-साधना का मूल उसके व्रतों पर निर्भर है। इनके अभाव में श्रावकसाधना अर्थहीन है। इसीलिए जैन धर्म में श्रावक के आचार धर्म को प्राथमिकता दी गयी है । श्रावक का यह आचार धर्म द्वादश व्रतों के रूप में निरूपित है । इन व्रतों में सर्वप्रथम अणुव्रत आते हैं :अणुव्रत का स्वरूप
श्रावक जिन व्रतों का यथाशक्ति परिपालन करता है वे अणुव्रत कहलाते हैं। यह 'अणुव्रत' शब्द 'अणु + व्रत' दो शब्दों के योग से बना है । 'अणु' का अर्थ है-अल्प या लघु और 'व्रत' का अर्थ नियम से है। अर्थात् मन और वचन की एकता द्वारा सत्कर्म की ओर प्रवृत्त होने के जो लघु नियम हैं, वे ही अणुव्रत हैं। यद्यपि अणु का शाब्दिक अर्थ छोटा भी किया जा सकता है, परन्तु वास्तव में व्रत छोटा या बड़ा नहीं होता है। व्रत को अखण्ड ग्रहण नहीं कर पाने पर वह अपूर्ण 'अणु' होता है और इस अपूर्ण से पूर्णता की ओर प्रयास ही श्रावक का 'लक्ष्य' होता है। पूर्णता की सीमा को प्राप्त करना महाबत होता है जो जाति, देश, काल आदि बन्धनों से ऊपर होता है । इसी महाव्रत का लघु संस्करण अणुव्रत है। आत्मबोध व आध्यात्मिक शक्ति की अपेक्षा अणुव्रतों में भी बनी रहती है ।
१. आदिपुराण, १०/६५-६६ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ३४१-३६८
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