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डपासकदशांग : एक परिशीलन 'परदारसमागम विरति' एवं पांचवें का 'अनन्तग‘विरति' दिया है।' आदिपुराण में चौथे व्रत का 'परस्त्रीसेवननिवृति' एवं पाँचवें का नाम 'तृष्णाप्रकर्षनिवृति' रखा है । २
गुणवतों और शिक्षाव्रतों के भी नामों एवं संख्याओं में भेद पाये जाते हैं। उपभोगपरिभोग, दिशा परिमाण व अनर्थदण्ड विरमण तीन गुणवत एवं सामायिक देशावकाशिक, प्रौषध और अतिथिसंविभाग चार शिक्षाव्रत हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रप्राभृत तथा रविषेण ने पद्मचरित में दिशाविदिशा प्रमाण, अनर्थदण्डत्याग एवं भोगोपभोग परिमाण ये तीन गुणवत व सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिपूजा व सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत बतलाये हैं। प्राकृत भावसंग्रह व सावयधम्मदोहा में भी यही क्रम है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में गुणव्रत तथा शिक्षाक्त ये भेद नहीं करके सात शोलवत बतलाये हैं, यथा-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्ड, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमाण एवं अतिथिसंविभाग । सल्लेखना को इनमें सम्मिलित नहीं किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय, सोमदेव ने उपासकाध्ययन, अमितगति उपासकाचार, पद्मनन्दि पंचविंशतिका और लाटो संहिता में भी उपयुक्त सात शील ही बताये हैं। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में आचार्य वसुनन्दि ने दिग्नत, अनर्थदण्ड एवं भोगोपभोगपरिमाणवत, ये तीन गुणवत एवं देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत बतलाये हैं।' हरिवंशपुराण में गुणव्रत तो तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार ही हैं परन्तु शिक्षाव्रत में भोगोपभोगपरिमाण के स्थान पर सल्लेखना को जोड़ा है। आदिपुराण में दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्ड को गुणव्रत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग व सल्लेखना को शिक्षावत कहा
१. पद्ममचरित्त, १४/१८४-१८५ २. आदिपुराण, १०/६३ ३. क. चरित्रप्राभृत, गाथा २४-२५
ख. पद्मचरित, १४/१९८-१९९ ४. तत्त्वार्थसूत्र, ७/२१ ५. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, ६७, ९१ ६. हरिवंशपुराण, १८/४६-४७
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