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________________ ७५ श्रावकाचार उद्धृत की है, जिसमें वहा गया है कि जो गुरुजनों से परलोकहित को करने वाले और तीव्र कर्मों को नष्ट करने वाले जिनागमों को सावधानीपूर्वक सुनता है, वही श्रावक है।' ____ इसके अतिरिक्त प्रतिमाओं के वर्णन करते समय वसुनन्दिश्रावकाचार में दार्शनिक और व्रतिक श्रावक का स्वरूप प्राकृत गाथाओं में कहा है। पं० हीरालाल शास्त्री ने ही श्रावक के स्वरूप के सम्बन्ध में एक श्लोक भूमिका में और उद्धत किया है जिसमें कहा गया है कि जो श्रद्धालु होकर जैन शासन को सुने, दीनजनों में अर्थ का वपन करे, सम्यक्दर्शन को वरण करे, सुकृत और पुण्य का कार्य करे, संयम का आचरण करे उसे विचक्षण जन श्रावक कहते हैं। इन उद्धरणों से उपासक या श्रावक के स्वरूप का तो निर्धारण होता है कि जो बारह व्रतों का पालन करता है, देव, गुरु, धर्म की उपासना करता है तथा आत्मकल्याण के मार्ग में लगता है, वह श्रावक है, किन्तु इस परिभाषा का आगमों में मूल स्रोत क्या है, यह ज्ञात नहीं होता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में मूलतः आगम मुनि-धर्म को ही प्रतिपादित करने वाले थे, किन्तु बाद में गहस्थ धर्म सम्बन्धी सामग्री भी संकलित की गयी है । जिस प्रकार मुनि, श्रमण, अणगार, साधु आदि की परिभाषाएँ आगम ग्रन्थों में प्राप्त हैं। इस प्रकार उपासक या श्रावक की १. "परलोयहियं सम्म जो जिणवयणं सुणेइ उवजुत्तो। अइतिव्व कम्मविगया सुक्कोसो सावगो एत्थ ॥" -पंचास्तिकाय, १ २. पंचुंबरसहियाइं परिहरेइ इय जो सत्त विसणाई । समत्तविसुद्धमई सो दंसणसावयो भणिओ ॥ एवं सण सावयठाणं पढमं समासओ भणियं । वयसावयगुणठाणं एत्तो विदियं पवक्खामि । --वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा २०५-२०६ . ३. श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनं दीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम् कृतत्वपुण्यानि करोति संयमं तं धावकं प्राहुरमी विचक्षणाः" - वसुनन्दिश्रावकाचार-प्रस्तावना, २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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