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उपासक दशांग : एक परिशीलन
अभिधान राजेन्द्र कोष में श्रावक शब्द के ३ पद हैं । 'श्रा' शब्द तत्वार्थ श्रद्धान की सूचना करता है, 'व' शब्द सप्त धर्म क्षेत्रों में बीज बोने की प्रेरणा करता है, 'क' शब्द क्लिष्ट कर्म महापापों को दूर करने का संकेत करता है, इस प्रकार कर्मधारय समास होने पर श्रावक शब्द बना है । '
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अणुव्रती आदि पर्यायवाची
उपासक या श्रावक के लिए अणुव्रतों का पालन करना आवश्यक है, इसलिए वह अणुव्रती कहलाता है, किन्तु पूर्ण रूप से व्रतों का पालन नहीं करने पर वह व्रताव्रती, विरताविरत, देशविरत, देशसंयमी और संयमासंयम भी कहलाता है । घर में रहने के कारण वह सागारी भी है और गृहस्थ धर्म का पालन करने के कारण गृहस्थधर्मी भी कहलाता है तथा श्रद्धा की प्रमुखता होने के कारण 'श्राद्ध' भी कहलाता है ।
वसुनन्दि श्रावकाचार में इसे गृहस्थ, सागार, गेही, गृही और गृहमेघी आदि नामों से भी पुकारा जाता है । २
पं० हीरालाल शास्त्री ने वसुनन्दि श्रावकाचार की भूमिका में उपासक शब्द का अर्थं उपासना करने वाला किया है अर्थात् जो अपने अभीष्ट देव, गुरु, धर्म की उपासना करता है, उसे उपासक कहते हैं । "
इस प्रकार उपासक या श्रावक शब्द के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न प्रसंगों से तो पर्याप्त जानकारी मिलती ही है, किन्तु विचारणीय यह है कि मूल आगम ग्रन्थों में उपासक या श्रावक शब्द की परिभाषा के रूप में कोई प्राकृत गाथा या प्राकृत गद्यांश देखने में नहीं आया है । केवल पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थ की एक गाथा पं० हीरालाल शास्त्री ने अपनी भूमिका में
१. " श्रन्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः,
तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः तथा किरन्ति विलष्ट कर्मरजो विक्षिपन्ती ति काः
तत कर्मधारये श्रावका इति भवति "
- अभिधान राजेन्द्र कोष- 'सावय' शब्द
२. वसुनन्दि श्रावकाचार - प्रस्तावना, पृष्ठ २१ ३. वही, पृष्ठ २०
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