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श्रावकाचार
वसुनन्दि-श्रावकाचार एवं उपासकाध्ययन में भी श्रावक और उपासक इन शब्दों का बहुविध प्रयोग हुआ है ।'
सावयधम्म दोहा में श्रावक के स्वरूप को विस्तार से प्रतिपादित किया है। इस तरह अन्य श्रावकाचार ग्रन्थों में भी उपासक एवं श्रावक शब्दों का प्रयोग उपलब्ध है। किन्तु प्राचीन ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र में वर्णित गृहस्थ धर्म का ही आगे के प्रन्थकारों ने विस्तार किया है। तत्वार्थसूत्र में श्रावक के लिए 'अगारी' शब्द का प्रयोग हुआ है। ___ इन शब्दों के प्रयोगों के विश्लेषण से उपासक के स्वरूप के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। शाब्दिक दृष्टि से विचार करें तो 'उपासक' का अर्थ हैं-समीप बैठने वाला
'उपसमीपे-आस्ते-इत्युपासके" अर्थात् जो श्रमणों के सान्निध्य में बैठता है, सद्ज्ञान और व्रत स्वीकार करता है और स्वयं उपासना के पथ पर आगे बढ़ता, वह श्रमणोपासक है।
श्रावक प्रज्ञप्ति में कहा है कि श्रावक शब्द 'श्रु' धातु से बना है, जिसका अर्थ है-सुनने वाला अर्थात् जो गुरुजनों से धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है । प्राचीन ग्रन्थों में इसके स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि जो सम्यक्त्वी एवं अणुव्रती प्रतिदिन साधुओं से सम्यक् दर्शन आदि समाचारी को सुनता है, वह निश्चित रूप से परमश्रावक है।३
१५वीं शताब्दी के आचार्य राजशेखरसूरि ने अपने ग्रन्थ 'श्राद्धविधि' में श्रावक शब्द का चिन्तन करते हुए कहा है कि जो दान, शील, तप, भाब की आराधना करता हुआ शुभयोगों से आठ प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है, श्रमणों के समीप समाचारी का श्रवण कर उसी प्रकार का आचरण करने का प्रयत्न करता है, वह श्रावक है। १. "सम्मत्त विसुद्धमई सो दंसण सावयो भणिओ" ।
-वसुनन्दि-श्रावकाचार, सूत्र २०५ २. "अणुव्रतोऽगारी",
-तत्त्वार्थसूत्र-संघवी, सुखलाल, ७/१५ . ३. "सम्मत दंसणाई पइ दिअहं जइजणा सुगेइ य सामायारी परम जो खलु तं सावयं वित्ति"
-श्रावकप्रज्ञप्ति, गाथा २
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