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पंचम अध्याय
श्रावकाचार
श्रावक साधना को पूर्व भूमिका
अर्द्धमागधी आगम ग्रन्थों में मुनि धर्म एवं गृहस्थ धर्म दोनों का विस्तार से वर्णन हुआ है। जिसके सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने प्रकाश डाला है। पं० दलसुख भाई मालवणिया एवं देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने आगम ग्रन्थों में वर्णित जैन दर्शन एवं आचार की विशद व्याख्या की है, उसी प्रसंग में 'उपासक' शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया है :जैन आगमों में उपासक शब्द
आचारांगसूत्र मूलतः श्रमण जीवन को प्रतिपादित करने वाला ग्रन्थ है, अतः उसमें उपासक या श्रावक शब्द देखने को नहीं मिलता है।
सूत्रकृतांगसूत्र में 'उपासक' शब्द की जगह 'समणोपासक' 'अगारिक' और 'श्रावक' शब्द प्रयुक्त है।'
स्थानांगसूत्र में 'अगार' एवं 'श्रमणोपासक' शब्द का प्रयोग उपासक के रूप में हुआ है।
१. क. "से णं लेवे णाम गाहावई समणोवासए यावि होत्था"
-सूत्रकृतांगसूत्र (सुत्तागमे)), सूत्र २ ख. "णो खलु वयं संचाएमो मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए । सावयं ण्हं अणुपुग्वेणं सुत्तस्स लिसिस्सामो"
--सूत्रकृतांगसूत्र (सुत्तागमे), सूत्र ८ २. क. "चरित्तधम्मे दुविहे अगारचरित्तधम्मे चेव अणगार चरित्त धम्मे"
---ठाणं (सुत्तागमे), २/१/१८८ ख. “चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता तंजहा--" ।
--ठाणं (सुत्तागमे), ४/३/४०६
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