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पिपासित
परव्यपदेश
es
उपासक दशांग : एक परिशीलन
पिवासिया
परववएसे
संवत्सरा
तलवर
=
७. दो स्वरों का मध्यवर्ती 'य' प्रायः ज्यों का त्यों बना रहता है व
कहीं-कहीं पर 'त' भी हो जाता है ।'
यथा
पैयाला
पेयाला
( उवा० सू० ४४, ४५)
नियय
नियग
(उवा० सू० १६८, १६९)
=
=1
८. दो स्वरों के मध्यवर्ती 'व' के स्थान पर 'व' 'त' एवं 'य' पाया जाता
हैं ।
=
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=
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=
शब्द के आदि, मध्य व संयोग में
भी जैन महाराष्ट्री की तरह स्थिर रहता है । यथा
श्रमणेन
समणेण
( उवा० सू० ८)
भक्षणता
भक्खणया
( उवा० सू० ५१)
=
-
( उवा० सू० २४२ )
( उवा० सू० ५६ )
संवच्छरा
तलवर
१०. 'स' 'श' एवं 'ष' की जगह सर्वत्र 'स' पाया जाता है । यथा
पुरुषं
( उवा० सू० १३६)
गोशालो
(उवा० सू० २१८)
=
( उवा० सू० २४१ )
( उवा ० सू० १२)
पुरिस गोसाले
=
सर्वत्र 'ण' की जगह 'ण' एवं 'न'
११. 'यथा' व 'यावत' शब्द में 'य' का लोप व 'ज' दोनों मिलते हैं । ४ जैन महाराष्ट्री में भी यही रूप बनता है । यथा
यावज्जीवं
यथासुखं
अहासुहं
१. “जन्द्य-यां-यः” प्राकृत व्याकरण - आचार्य हेमचन्द्र, ४/२९२ २. "श-षोः सः " प्राकृत व्याकरण-आचार्य हेमचन्द्र, १/२६० ३. शास्त्री, नेमिचन्द्र - अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ट ४४२ ४. शास्त्री, नेमिचन्द्र -- अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ ४४२
जावज्जीवाए ( उवा० सू० १३, १४, १५, १७, १८)
( उवा० सू० १२)
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