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उपासकदशांग का रचनाकाल एवं भाषा ४. दो स्वरों के मध्यवर्ती 'त' प्रायः बना रहता है व कहीं-कहीं पर 'य' भी होता है। जैन महाराष्ट्री का भी यही नियम है । यथा
वंदित्वा = वंदित्ता ( उवा० सू०९) संतत्तो = सत्तए (उवा० सू० ७२, ७३ ) महातपाः = महातवे ( उवा० सू० ७६ )
'त' का 'य' में निदर्शन । यथा
करत - करय कृतार्थः = कयत्थ
( उवा० सू० १८४) ( उवा० सू० १११)
५. दो स्वरों के बीच स्थित 'द' का 'द' बना रहता है। अधिकतर 'त' भी पाया जाता है व कहीं-कहीं पर 'य' भी होता है । यथा
अदत्तादानं = अदिण्णादाणं ( उवा० सू० १५, ४७) प्रतिदर्शयति = पडिदंसइ (उवा० सू० ८६ )
'द' का 'त' में परिवर्तन । यथा
वद = वुत्त
( उवा० सू० ८६ )
'द' का 'य' में निदर्शन | यथा
वाद = वाय वदन = वयण चतुष्पद = चउप्पय
( उवा० सू० ४६ ) (उवा० सू० ९५) ( उवा० सू० १८,४९)
६. दो स्वरों के मध्यवर्ती 'प' का 'व' होता है । यथा
___ सपत्नी = सवत्तीओ (उवा० सू० २३९ )
१. पिशेल-प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा १९५ २. शास्त्री, नेमिचन्द्र-अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ट ४१३ ३. 'पो व :" प्राकृत व्याकरण-आचार्य हेमचन्द्र, १/२३१
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