SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३ उपासकदशांग का रचनाकाल एवं भाषा है, जबकि अन्य ग्रन्थों में इसकी विषयवस्तु को देखकर यह सार्थक नहीं लगता। यही स्थिति अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणदशा और विपाकदशा की भी है। यदि हम स्थानांग, समवायांग और नन्दो में इनके विषय-वस्तु के विवरण को तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो निश्चित रूप से कह सकते हैं कि स्थानांग के विवरण ही प्राचीन हैं। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान विषयवस्तु का उल्लेख तो केवल हमें नन्दीचूर्णि में आकर मिलता है। अतः यह स्पष्ट है कि स्थानांग उपासकदशांग का जो विवरण प्रस्तुत करता हैं वह इस ग्रन्थ का प्राचीनतम विवरण है। यद्यपि यह संयोग ही है कि यही एकमात्र ऐसा आगम ग्रन्थ है जिसके अध्ययन आदि के नाम, क्रम आदि यथावत् रहे हैं और इससे ऐसा लगता है कि इसमें परिवर्तन, यदि हुए भी तो अल्पतम ही हुए होंगे । स्थानांग, समवायांग की अपेक्षा प्राचीन है, यह तो निर्विवाद ही सिद्ध है। स्थानांग में हमें सात निह्नवों के नाम मिलते हैं और इसी प्रकार कुछ गणों के भी उल्लेख मिलते हैं। ये सातों निह्नव महावीर के निर्वाण से ५८४ वर्ष पश्चात् ही हुए हैं। इसी प्रकार जिन गणों के उल्लेख मिलते हैं, वे भी ईसा की प्रथम शताब्दी में अस्तित्व में आ चुके थे। बोट्रिक नामक आठवां निह्नव माना गया है, जिसका उल्लेख स्थानांग में नहीं है। यह निह्नव महावीर के निर्माण के ६०९ वर्ष बाद हुआ। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि स्थानांग की रचना ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी के पूर्व हो चुकी थी और चूँकि स्थानांग में उपासकदशांग की वर्तमान विषयवस्तु का उल्लेख है अतः वर्तमान उपासकदशांग भी ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी के पूर्व तो अवश्य ही अपने वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध था, अतः विषय-वस्तु, भाषा और अन्तर बाह्य साक्ष्यों से ऐसा लगता है कि उपासकदशांग ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी से ईसा की प्रथम शताब्दी के मध्य कभी निर्मित हुआ होगा। ___उपासकदशांग में श्रावक व्रतों का विभाजन अणुव्रतों और शिक्षाव्रतों के रूप में हुआ है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में, जो कि श्रावकाचार का प्रतिपादन करने वाला इसके बाद का ग्रन्थ है, श्रावक के बारह व्रतों का वर्गीकरण अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत इन तीन रूपों में हुआ है । अतः यह निश्चित रूप से मानना होगा कि उपासकदशांग का वर्गीकरण प्राथमिक एवं तत्त्वार्थ का वर्गीकरण परवर्ती है। ऐसी स्थिति में यह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy