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उपासकदशांग : एक परिशीलन
मानना होगा कि उपासकदशांग तत्त्वार्थ से पहले निर्मित हुआ। तत्त्वार्थ का रचनाकाल विद्वानों ने लगभग ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी माना है, अतः उपासकदशांग का रचना काल उसके पहले माना जा सकता है।
पुनः पालि त्रिपिटक में उपोसथ की चर्चा के प्रसंग में निर्ग्रन्थ उपोषध का उल्लेख है, जो अंग आगम साहित्य में हमें भगवती और उपासकदशांग में भी प्राप्त होता है, अतः यह कहा जा सकता है कि उपासकदशांग की विषयवस्तु प्राचीन स्तर की ही है, जिसकी कुछ अवधारणाएं तो बुद्ध और महावीर के समकालीन कही जा सकती हैं।
भाषा की दृष्टि से उपासकदशांग को परवर्ती सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया जाता है कि इसमें समासबहुल पद और पुनरावृत्तियां काफी अधिक हैं । परन्तु जहाँ तक समासबहुल पदों का प्रश्न है वे प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं पाये जाते हैं जैसे-आचारांगसत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में निम्न पद पाया जाता है :
"ईहामिय-उसभ-तुरग-पर-मकर-विहग-वाणर-कुंजर"' इसी तरह ज्ञाताधर्मकथांग में निम्न समास पद पाया जाता है ।
"धवल-वट्ठ-असिलिट्ठ-तिक्ख-थिर-पीण-कुडिल-दाढोवगू ढवयणं"२
पालि त्रिपिटक में तो अनेक स्थानों में हमें समास बहुल पद मिलते हैं।
जहाँ तक पुनरुक्ति का प्रश्न है वह तो आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में तथा पालि त्रिपिटकों में भी बहुलता से मिलती हैं। पादपति में यद्यपि कुछ परवर्ती ग्रन्थों की सूचनाएं आयी हैं किन्तु यह कार्य इन आगमों के सम्पादन एवं लिपिबद्ध किये जाने के समय हुआ है। ___ अतः इन आधारों पर इसे परवर्ती नहीं माना जा सकता है। हमारी दृष्टि में तो इस ग्रन्थ की रचनाकाल की अपर सीमा ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी व अन्तिम सीमा ईसा की प्रथम शताब्दी ही मानी जानी चाहिए।
१. आचारांग सूत्र--मुनि मधुकर, पृष्ठ ३८२ । २. ज्ञाताधर्मकथांग-मुनि मधुकर, अध्याय ८, पृ० २३५
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