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चतुर्थ अध्याय
उपासकदशांग का रचनाकाल एवं भाषा
उपासकदशांग अर्द्धमागधी आगम साहित्य का एक प्रमुख ग्रन्थ है। यद्यपि इसमें कहीं-कहीं महाराष्ट्रो का प्रभाव देखा जाता है किन्तु अर्द्धमागधी आगमों पर महाराष्ट्रो का यह प्रभाव सर्वत्र ही पाया जाता है। यहाँ तक कि प्राचीनतम माने जाने वाले आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, दशवेकालिक और उत्तराध्ययन में भी यह प्रभाव आ गया है। वस्तुतः अर्द्धमागधी आगम साहित्य की परम्परा लगभग एक हजार वर्ष तक मौखिक रूप से चलती रही, अतः उसकी भाषा में परिवर्तन आना स्वाभाविक ही था। यदि हम गंभीरतापूर्वक अध्ययन करें तो यह पाते हैं कि जो आगम ग्रन्थ अधिक प्रचलन में रहे, उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव अधिक पड़ा और जो ग्रन्थ कम प्रचलन में रहे उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव कम पड़ा। उदाहरण के रूप में ऋषिभाषित में आचारांग, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन की अपेक्षा महाराष्ट्रो का प्रभाव कम देखा जाता है। अतः महाराष्ट्री के इस प्रभाव के कारण यह मान लेना उचित नहीं होगा कि उपासकदशांग परवर्ती काल का आगम है। इतना तो निश्चित है कि उपासकदशांग आचारांग के बाद बना होगा, किन्तु वह उसके बहुत बाद का होगा, यह कहना समुचित नहीं है। कम से कम उसे आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के निकट तो माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम आचार सम्बन्धी ही ग्रन्थ बने होंगे। मुनि आचार के ग्रन्थों के निर्माण के पश्चात् स्वाभाविक रूप से यह आवश्यकता महसूस हुई होगी कि श्रावक-आचार पर भी कोई ग्रन्थ हो। इस दृष्टि से उपासकदशांग की रचना मुनि आचार सम्बन्धी आगम ग्रन्थों की रचना के चाहे बाद में हुई हो किन्तु फिर भी इसे अधिक परवर्ती नहीं कहा जा सकता। कम से कम भद्रबाहु द्वारा रचित छेद सूत्रों के समकाल या परवर्ती काल में इसकी रचना अवश्य हो गयी होगी। जब चतुर्विध संघ में श्रावक-श्राविका एक अनिवार्य घटक बन गये तो आवश्यक था कि उनकी आचार-व्यवस्था का भी प्रतिपादन हो । उपासक
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