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उपासकदशांग की विषयवस्तु और विशेषताएँ लोढी के समान थी और पैर दाल आदि पिसने की शिला के सदृश थे। हाथी के रूप का वर्णन करते हए बताया गया है कि वह आगे से ऊँचा व पीछे से सूअर के समान झुका हुआ था, उसकी संड़ व होंठ लम्बे थे। मुँह से बाहर निकले दाँत बेले की अधखिली कली के समान सफेद थे। वह बादलों की तरह गरज रहा था।
साँप को स्याही व मूस-धातु गलाने के पात्र जैसा काला बताया गया है । उसकी वजह से वह पृथ्वी की वेणी के सदृश लगता था ।
देव के रूप का वर्णन करते हुए कहा है कि देव मांगलिक पोशाक, उत्तम मालाओं व विविध विलेपन से युक्त था। देवोचित वर्ण, गंध, रूप, स्पर्श का धारक वह देव मन में बस जाने वाले दिव्यरूप वाला था।
इस प्रकार के वर्णन से जहाँ कथानक की भाषा में सौष्ठव पैदा हुआ है वहीं उसमें प्रवाह क्षमता भी बढ़ी है, जिससे कथानक सजीव हो गया है और ऐसा लगता है कि समस्त उपसर्ग स्वयं अपनी आँखों के सामने घटित हो रहे हैं। विषयवस्तु का यह साहित्यिक स्वरूप उपासकदशांगसूत्र को साहित्यिक विशेषताओं से युक्त कृति सिद्ध करता है। ४. कथावस्तु में ताकिक संवादों का प्रयोग-कथावस्तु में विभिन्न प्रसंगों
पर संवादों का प्रयोग कथानक को पुष्ट करने एवं उसे गति देने के लिए हुए हैं। ऐसे संवादों में आनन्द व गौतम, कुण्डकोलिक और देव, सकडालपुत्र एवं महावीर तथा सकडालपुत्र व गोशालक के संवाद मुख्य हैं। ये संवाद जहाँ जैनधर्म के सिद्धान्तों की व्याख्या करते हैं वहीं आत्मोत्थान की प्रक्रिया को पुष्ट करने के साधन-हप भी होते हैं। आत्म कल्याण के लिए कौन-सा मार्ग समीचीन है और कौन-सा नहीं है, यह तथ्य भी इन संवादों से सुस्पष्ट होता है। कुछ संवाद विभिन्न शंकाओं के समाधान से सम्बन्धित भी हैं। इन सब संवादों में एक बात सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और वह है-इन सब संवादों में पात्रों द्वारा अपने-अपने तर्कों से अपनी बात को प्रामाणिक करने की चेष्टा करना। ऐसे प्रयास में यह संवाद तार्किकशैली से ओत-प्रोत भी है और दार्शनिक स्वरूप से अलंकृत भी। इस विशेषता के फलस्वरूप उपासकदशांगसूत्र श्रावकाचार का एक प्रमुख ग्रन्थ बन गया है।
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