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________________ उपासकदशांग की विषयवस्तु और विशेषताएं ४७ हैं तो शिवानन्दा व अग्निमित्रा जैसी श्राविकाएँ भी हैं। महावीर जैसे श्रमण धर्म के नायक हैं तो गौतम जेसे शिष्य भी हैं। यही नहीं, इसमें आत्मसाधना में संलग्न श्रावक हैं तो रेवती जैसी विषयवासना में तल्लीन स्त्री भी है। सबके चरित्रों की उत्थापना व विकास इस तरह से हुआ है कि उससे श्रावकाचार की महत्ता स्पष्टतः उजागर होती है | महावीर के चरित्र विकास की चरम सीमा इस बात से प्रकट होती है कि महावीर के विरोधी गोशालक को भी महावीर के बारे में कहना पड़ता है कि महावीर महागोप, महासार्थवाह एवं महामाहन है। इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग व्यक्ति के चहुंमुखी विकास को प्रकट करता है । आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों ने गृहस्थावस्था में रहते हुए भी अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतों को ग्रहण कर चरित्र को स्वयं विकसित किया, साथ ही अपनी भार्याओं को भी आत्म-विकास करने के लिए प्रोत्साहित किया ।' यह स्थिति श्रावकों के स्व-कल्याण के साथ-साथ पर-कल्याण की दृष्टि को भी स्पष्ट करती है। सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से चले इसके लिए आनन्द आदि श्रावकों ने व्रत ग्रहण करने के बाद भी वस्तुओं की मर्यादा निश्चित को । यह मर्यादा इसलिए निश्चित की गयी ताकि उन पर आश्रित व्यक्तियों को कष्ट नहीं पहँचे। व्यक्ति सरल व विनयी हो, इसके लिए गौतम ने आनन्द श्रावक के अवधिज्ञान के विषय में संशय होने पर क्षमा-याचना की। साधु द्वारा श्रावक से क्षमायाचना करना चरित्र के चरमोत्कर्ष विकास को प्रदर्शित करता है। श्रावकों ने आचार धर्म की पालना करते हुए अपने चरित्र को इतना उदात्त बना दिया और विभिन्न उपसर्गों की वेदना को इस प्रकार समभाव पूर्वक सहा कि समय-समय पर स्वयं भगवान महावीर को भी उनकी प्रशंसा करनी पड़ो और अपने शिष्य-परिवार को उनसे प्रेरणा ग्रहण करने को कहना पड़ा। यह इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि उनके चरित्र का विकास कितनी ऊँचाई तक हो गया था। श्रावकों को अवधिज्ञान की उपलब्धि होना एवं मृत्यु के उपरान्त उनका देवलोकगमन १. उवासगदसाओ-(सं०) मुनि मधुकर, सूत्र १/१२, १/५८, २/९२ २. वही, १/१७ से १/४२ तक ३. उवासगदशाओ-(सं०) मुनि मधुकर, १/८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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