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प्रस्तुतीकरण :
उपर्युक्त रूपरेखा के अनुसार शोध-ग्रन्थ के प्रथम अध्याय आगम साहित्य एवं उपासक दशांग में सर्वप्रथम आगम शब्द की परम्परा और स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । जैन परम्परा में आगम के लिए श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना आदि अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है । किन्तु इनमें आगम शब्द अधिक प्रचलित है । प्राचीन ग्रन्थों से आगम की विभिन्न परिभाषाओं को प्रस्तुत कर आगम के स्वरूप को परिभाषित किया गया है जिससे यह ज्ञात होता है कि केवलज्ञान के धारी तीर्थंकर महापुरुषों के प्रामाणिक वचन आगम कहे जाते हैं । इन प्रामाणिक वचनों का परम्परा के द्वारा सुरक्षापूर्वक जो संकलन किया गया है वह आगम साहित्य के नाम से जाना जाता है । यहीं पर आध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से आगम साहित्य के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है । आगम साहित्य मौखिक परम्परा से सुरक्षित होता हुआ विभिन्न वाचनाओं के द्वारा व्यवस्थित हुआ है । वीर निर्वाण ९८० से ९९३ में आयोजित देवधिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में सम्पन्न वलभी वाचना में अर्द्धमागधी आगम साहित्य को पुस्तकारूढ़ किया गया । वही आगम का स्वरूप आज हमें विभिन्न रूपों में प्राप्त है इसी अध्याय में जैन आगम साहित्य का वर्गीकरण एवं परिचय प्रस्तुत किया गया है । इसमें बारह अंग ग्रन्थ, बारह उपांग, चार मूलसूत्र, छः छेदसूत्र एवं अन्य प्रकीर्णक आगमों का परिचय दिया गया है । इस अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि जैन आचार्यों ने तीर्थंकरों की वाणी को सुरक्षित रखने में अथक श्रम किया है। यही आगम साहित्य जैन धर्म और संस्कृति को जानने का मूल आधार है ।
शोध-ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में जैन आचार के आधारभूत ग्रन्थ उपासकदशांगसूत्र का परिचय प्रस्तुत किया गया है । इस अध्याय में उपासक दशांग की विभिन्न पाण्डुलिपियों, प्रकाशित संस्करणों एवं इसके व्याख्या साहित्य का पहली बार एक साथ परिचय प्रस्तुत किया गया है । इस अध्याय से ज्ञात होता है कि विभिन्न संस्करण होते हुए भी इस ग्रन्थ का समग्र रूप से अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया था, जिसकी पूर्ति प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ के द्वारा की गयी है ।
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