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उपासकदशांग : एक परिशीलन
अनेक वैतनिक कर्मचारी कार्य करते थे जो बर्तन को नगर के चौराहों एवं गलियों में बेचते थे। - धर्माराधना व देव द्वारा सम्बोधन- एक दिन सकडालपुत्र अशोक वाटिका में जाकर अपनी मान्यतानुसार धर्माराधना कर रहा था, वहाँ एक देव प्रकट हुआ और कहने लगा, हे सकडालपुत्र! कल यहाँ महामाहन, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक, जिन केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रिलोक पूजित मुनि पधारेंगे। तुम उनकी पर्युपासना करना व स्थान, पाट आदि के लिए आमन्त्रित करना।
सकडालपुत्र ने सोचा-मेरे धर्माचार्य मंखलिपुत्र गोशालक कल यहाँ आयेंगे । वे केवली हैं, अतः मैं निश्चय ही उनकी पर्युपासना करूंगा। दूसरे दिन भगवान महावीर सहस्राम्र उद्यान में पधारे । सकडालपुत्र भी दर्शनार्थ गया।
महावीर ने सबको धर्मोपदेश दिया और सकडालपुत्र को सुलभबोधि जानकर प्रेरणा देने के उद्देश्य से कहा-कि कल जिस देव ने तुम्हें जिसके आगमन की सूचना दी, उसका अभिप्राय मुझसे था।
इस परोक्ष ज्ञान से सकडालपुत्र अत्यन्त प्रभावित हुआ और महावीर को बर्तन, पात्र आदि के लिए आमन्त्रित किया, जिसे भगवान ने स्वीकार किया।
नियति व पुरुषार्थ भगवान महावीर जानते थे कि सकडालपुत्र की आस्था अभी भी गोशालक में है, इसलिये एक दिन सद्बोध देने के उद्देश्य से भगवान उसकी दुकान से बाहर सूख रहे बर्तनों को देखकर पूछा-ये बर्तन कैसे बने ? सकडालपुत्र बोला-भगवन् ! पहले मिट्टी लाई गयी, पानी में भिगोया गया, चाक पर चढ़ाकर इन्हें बनाया गया। भगवान बोले-ये प्रयत्न और पुरुषार्थ से बने हैं या नहीं ? सकडालपुत्र बोला-भगवन् ! ये बर्तन अप्रयत्न व अपुरुषार्थ से बने हैं, क्योंकि जो कुछ होता है वह निश्चित है। महावीर ने कहा-मान लो कोई तुम्हारे बर्तन चुरा ले, तोड़ दे, तुम्हारी : स्त्री के साथ बलात्कार करे तब तुम क्या करोगे ? सकडालपुत्र बोलामैं उसे मारूंगा, पीटंगा और यहाँ तक कि मैं उसे कत्ल भी कर दूंगा। महावीर ने कहा-क्यों ? यह तो सब नियत था इसलिए यह तो होना ही
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