________________
उपासकदशांग की विषयवस्तुं और विशेषताएँ
४१
नियतिवाद का खण्डन — तब कुण्डकौलिक बोला, देव ! एक बात • बताओ - तुमने जो यह रूप, वैभव, कान्ति व लब्धियां पायी हैं, क्या इसे प्रयत्न व पुरुषार्थ के बिना प्राप्त कर लिया है ? तब देव ने कहा- मुझे यह - सब बिना प्रयत्न मिला है । तब कुण्डकौलिक ने उत्तर दिया- तो जो प्राणी 'पुरुषार्थं नहीं करते, वे देव क्यों नहीं हुए और यदि प्रयत्न व पुरुषार्थ से मिला है तो महावीर के सिद्धान्त, जिसमें पुरुषार्थ व प्रयत्न का विशेष महत्त्व है, उन्हें मिथ्या कैसे कह सकते हो ?
देव की पराजय - इस पर देव निरुत्तर होकर वस्त्राभूषण वहीं रखकर वापस लौट गया । कुछ समय बाद भगवान महावीर काम्पिल्यपुर पधारे। कुण्डकौलिक भी धर्मोपदेशना सुनने गया ।
महावीर द्वारा प्रशंसा - महावीर ने कुण्डकौलिक से उस देव घटना के बारे में पूछा कि क्या यह सच है ? तो कुण्डकौलिक ने इसे विनयपूर्वक स्वीकार किया ।
वहाँ उपस्थित साधु-साध्वियों को प्रेरणा देने हेतु महावीर ने कुण्डकोलिक को प्रशंसा की और कहा कि गृहस्थावस्था में रहते हुए भी कुण्डकौलिक इतना तत्त्ववेत्ता है, अतः आप भी इससे प्रेरणा लें ।
उग्रसाधना - धीरे-धीरे कुण्डकौलिक की साधना के प्रति रुचि बढ़ती गयी और वह उम्र से उग्र साधना करने लगा । पन्द्रहवें वर्ष में अपने ज्येष्ठ को पुत्र गृहभार सौंपकर वह सर्व रूप से साधना करने में लग गया । उसने ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार किया। एक मास का सल्लेखना कर समाधिपूर्वक देह त्याग किया और अरुणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ । ७. सकडालपुत्र
महावीर के काल में पोलासपुर नामक नगर था । वहाँ नगर के बाहर सहस्रास्र नामक उद्यान था । इसी नगर में आजीवक मत का अनुयायी सकडालपुत्र नामक कुम्भकार रहता था । सकडालपुत्र के पास एक करोड़ सुवर्ण घर के कोष में, एक करोड़ व्यापार में व एक करोड़ घर के वैभव में लगा हुआ था । दस हजार गायों का एक गोकुल था । सकडालपुत्र को पत्नी का नाम अग्निमित्रा था ।
व्यवसाय - सकडालपुत्र के पोलासपुर नगर के बाहर पाँच सौ आपण थे । उसका मुख्य व्यवसाय मिट्टी के बर्तन बनाकर बेचना था । उसके पास
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org