SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपासकदशांग : एक परिशोलन नहीं किसी ने मारा है और मुझे भी कुछ नहीं हुआ है। तुमने यह सब देव माया देखी है । इस तरह चिल्लाने से तुम्हारे व्रतों में क्षोणता आई है, अतः अब तुम इसका प्रायश्चित्त करो। यह सुनकर चुलनीपिता को बहुत दुःख हुआ, उसने प्रायश्चित्त किया और पुनः व्रतों में स्थिर हो गया। प्रतिमाग्रहण-अब चुलनीपिता ने श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएँ ग्रहण कर ली और वह आत्मानुशासन में लीन होता गया। कठोर तपश्चरण और बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन करता हुआ एक मास की सल्लेखना कर उसने अपनी आयु पूर्ण की और अरुणाभ विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। ४. सुरादेव वाराणसी नगरी में सुरादेव नामका गाथापति रहता था। सुरादेव समृद्धि और वैभव से परिपूर्ण था। उसके पास छः करोड़ स्वर्ण खजाने में, छः करोड़ स्वर्ण व्यापार में एवं छ: करोड स्वर्ण घर के वैभव में लगे थे। वह दस-दस हजार गायों वाले छः गोकुलों का स्वामी था । व्रतों को स्वीकारना एक बार भगवान महावीर वाराणसी पधारे । सुरादेव ने भगवान का उपदेश श्रवण किया तथा उपदेशों से प्रभावित होकर श्रावक व्रत ग्रहण किये। क्रमशः सुरादेव की धर्माराधना बढ़ती गई। उपसर्ग व सुरादेव का पतन--एक रात्रि को सुरादेव जब प्रोषधनत की उपासना में लीन था, वहाँ एक देव प्रकट हुआ। उसके हाथ में तीक्ष्ण तलवार थी, उसने उसे बहुत डराया-धमकाया और उसके तीनों पुत्रों को चुलनीपिता के पुत्रों की तरह मारा-काटा एवं कड़ाही में उबाला, फिर भी सुरादेव उपासना में ही संलग्न रहा। तब देव ने कहा, सुरादेव ! यदि तुम धर्माराधना नहीं छोड़ोगे, तो मैं तुम्हारे शरीर में सोलह रोग उत्पन्न कर दूंगा जिससे तुम खाँसी, कोढ़ आदि से ग्रसित होकर मर जाओगे। ये वचन सुनकर सुरादेव ने उसे पकड़'. लेने की सोची और वह इसके लिये उठा तो देव तत्काल आकाश में उड़ गया एवं उसके हाथ में खम्भा आ गया, जिसे पकड़कर वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy